Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 123
________________ २३६ प्रवचनसार अनुशीलन मिथ्यादृष्टि जीव भले ही द्रव्यलिंग धारण करें, फिर भी अन्तर विद्यमान मिथ्याभावों के कारण वे अनंतकाल भिन्न-भिन्न भावरूप से परिवर्तन करते हुये अस्थिर परिणतिवाले ही रहेंगे और इसीलिये वे संसारतत्त्व हैं। प्रत्येक पदार्थ की पर्याय उसके स्वकाल में स्वतंत्ररूप से न मानकर निमित्त होने पर होगी ह्र ऐसी मान्यता होने से उसे चैतन्य की रुचि नहीं है; चैतन्य के विरुद्ध शुभाशुभ भावों की रुचि है। ऐसा जीव प्रतिसमय शुभअशुभ में ही उलझा रहता है। किसी भव में हिंसा, झूठ, चोरी आदि के भाव करता है, किसी भव में दिगम्बर मुनि होकर पाँच महाव्रतादि का पालन करते हुए तपादि करता है तो किसी भव में बड़ा कसाई बनकर प्राणियों का घात करता है ह्र इसप्रकार अनेक भवांतररूप संसार में ही परावर्तन करता रहता है। द्रव्यलिंगी मुनि उत्कृष्ट तप और वैराग्य से युक्त होने पर भी तत्त्व को अतत्त्व मानने के कारण संसारतत्त्व ही हैं, उसी में अग्रसर हैं। निगोद से लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने भी जीव तत्त्व का यथार्थ स्वरूप न मानकर कुतर्क करते हैं, वे सब संसारतत्त्व हैं।" इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि आत्मज्ञान अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से रहित होकर भी जिन्होंने नग्न दिगम्बर वेष धारण कर लिया है तू ऐसे मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि ही वस्तुत: संसार हैं, संसारतत्त्व हैं। मुनिधर्म को बदनाम करनेवाले ऐसे वेषधारी श्रमण अपरिमित काल तक संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४५६ २. वही, पृष्ठ ४५७ स्वानुभूति प्राप्त करने की प्रक्रिया निरन्तर तत्त्वमंथन की प्रक्रिया है, किन्तु तत्त्वमंथनरूप विकल्पों से भी आत्मानुभूति प्राप्त नहीं होगी; क्योंकि कोई भी विकल्प ऐसा नहीं जो आत्मानुभूति को प्राप्त करा दे। ह्नतीर्थकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-१३५ प्रवचनसार गाथा २७२ विगत गाथा में संसारतत्त्व का स्वरूप स्पष्ट कर अब इस गाथा में मोक्षतत्त्व का स्वरूप समझाते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा। अफले चिरंण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो॥२७२।। (हरिगीत) यथार्थनाही तत्त्व के अर रहित अयथाचार से। प्रशान्तात्मा श्रमण वे ना भवभ्रमे चिरकाल तक।।२७२।। जो श्रमण पदों और पदार्थों के निश्चयवाले होने से प्रशान्तात्मा हैं और अन्यथा आचरण से रहित हैं; सम्पूर्ण श्रामण्यवाले वे श्रमण, कर्मफल से रहित हैं और वे इस संसार में चिरकाल तक नहीं रहते। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "जो श्रमण त्रिलोक की चूलिका के समान निर्मल विवेकरूपी दीपिका के प्रकाशवाले होने से और पदार्थों के वास्तविक निश्चय से उत्सुकता का निवर्तन करके स्वरूप मंथर रहने से सतत् प्रशान्तात्मा तथा स्वरूप में अभिमुखरूप से विचरते होने के कारण अयत्नाचार रहित होने से नित्य ज्ञानी हैं; वे सम्पूर्ण श्रामण्यवाले साक्षात् श्रमण मोक्षतत्त्व हैं; क्योंकि उन्होंने पूर्व के समस्त कर्मों के फल को लीलामात्र में नष्ट कर दिया है और वे नये कर्मों के फल को उत्पन्न नहीं करते; इसलिए पुनः प्राणधारणरूप दीनता को प्राप्त न होते हुए भावरूप परावर्तन के अभाव के कारण शुद्धस्वभाव में अवस्थित रहते हैं।" ___ यद्यपि आचार्य जयसेन तात्यर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करते हुए तत्त्वप्रदीपिका का ही अनुकरण करते हैं; तथापि अन्त में निष्कर्ष के रूप में कहते हैं कि मोक्षतत्त्वरूप परिणत पुरुष ही अभेदनय से

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