Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 119
________________ २२८ प्रवचनसार अनुशीलन इसके बाद श्रावकों को संबोधित करते हुए कहते हैं ह्र (दोहा) मत चित में जानियौ, मुनि कहँ यह उपदेश । श्रावक को तो नहिं कह्यौ, मूल ग्रंथ में लेश ।। ८० ।। मुनि के मिष सबको कह्यौ, न्याय रीति निरबाह । जिहि मग में नृप पग धेरै, प्रजा चलै तिहि राह । । ८१ । । ऐसो जानि हिये सदा, जिन आगम अनुकूल । करो आचरन हे भविक, करम जलैं ज्यों तूल ।। ८२ ।। चूंकि मूल ग्रन्थ में तो यह कहीं नहीं कहा है कि यह उपदेश श्रावकों के लिए भी है। इसलिए हे श्रावकजनो ! तुम यह मत समझना कि यह सब उपदेश मुनियों के लिए ही है। मुनियों के बहाने यह न्याय और रीति-नीति का उपदेश सभी को दिया गया है। जिसप्रकार जिस रास्ते पर राजा चलता है, प्रजा भी उसी रास्ते पर चलने लगती है। उसीप्रकार मुनियों के समान ही श्रावकों को भी सत्संगति में रहना ही श्रेयस्कर है। ऐसा जानकर, इस बात को हृदय में धारण कर सदा ही सभी को जिनागम के अनुकूल आचरण करना चाहिए। ऐसा करने से आग के सम्पर्क में आई हुई रुई के समान कर्म भी क्षण भर में भस्म हो जाते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “जिसप्रकार अग्नि के संग में आया हुआ पानी विकार अर्थात् उष्णता को प्राप्त करता है । अग्नि ने पानी को गरम नहीं किया, किन्तु पानी स्वयं अग्नि का संग करें तो उष्णता को प्राप्त होता है। उसीप्रकार मुनिराज लौकिकजन अर्थात् राजा, सेठ, ज्योतिषी, मंत्र-तंत्र जाननेवालों का समागम करें तो असंयमी होते हैं। लौकिक जन मुनिराज को भ्रष्ट नहीं करते, किन्तु लौकिकजनों के साथ समागम करनेरूप स्वयं का भाव मुनिराज को संयमीदशा से च्युत गाथा २७० २२९ करता है । मुनिराज जब स्वरूप में नहीं ठहर सकते, तब उन्हें अवश्य ही शुभोपयोग में रहना चाहिए, किन्तु अशुभभावों में नहीं ।' जिसप्रकार ठंडी जगह रखा हुआ पानी शीतलता को प्राप्त करता है तथा शीतल गुणयुक्त बर्फ का संयोग मिलने पर वह जल और भी शीतल हो जाता है, उसीप्रकार अपने समान गुणयुक्त मुनियों के संग से मुनिराज गुणों की रक्षा होती है और अपने से अधिक गुणयुक्त मुनियों के संग से श्रमण के गुणों में वृद्धि होती है । २" शुभोपयोगाधिकार की इस अन्तिम गाथा में लौकिकजनों के संसर्ग में न रहकर; जिनमें हमसे अधिक गुण हैं, उनकी संगति में रहने की बात कही गई है। यदि अधिक गुणवालों का समागम संभव न हो तो समान गुणवालों की संगति में रहना चाहिए। जिसप्रकार अग्नि के संयोग से पानी गर्म हो जाता है; उसीप्रकार लौकिकजनों के संसर्ग से संयमी भी असंयमी हो जाते हैं। सत्संगति का लाभ बताते हुए आचार्यदेव टीका में तीन उदाहरण देते हैं। प्रथम अग्नि के संयोग में रखे हुए जल का, दूसरा शीतल घर के कोने में रखे हुए घड़े का और तीसरा बर्फ के संसर्ग में रखे हुए घड़े का । जिसप्रकार अग्नि के संयोग में रहनेवाला जल गर्म हो जाता है; उसी प्रकार लौकिकजनों के संसर्ग से श्रमण असंयमी हो जाते हैं। जिसप्रकार शीतल घर के कोने में रखे हुए घड़े के ठंडे जल की रक्षा होती है, वह गर्म नहीं हो पाता; उसीप्रकार समान गुणवालों का संगति से अपने सद्गुणों की रक्षा होती है और जिसप्रकार बर्फ की संगति में रखे हुए घड़े का जल अधिक शीतल हो जाता है; उसीप्रकार अधिक गुणवालों की संगति से हमारे गुणों में वृद्धि होती है। इसलिए श्रमणों को सदा ही या तो अधिक गुणवालों की संगति में रहना चाहिए या फिर समान गुणवालों की संगति में रहना चाहिए। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४४६ २. वही, पृष्ठ ४४७

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