Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 112
________________ गाथा २६४ प्रवचनसार गाथा २६४ विगत गाथाओं में श्रमणों के साथ, श्रमणों और श्रावकों को कैसा व्यवहार करना चाहिए' ह यह स्पष्ट करने के उपरान्त अन्त में यह कहा गया है कि श्रमणाभासों के प्रति तो उक्त विनय-व्यवहार सर्वथा निषिद्ध ही है; अत: अब इस गाथा में यह बताते हैं कि वे श्रमणाभास कैसे होते हैं ? गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्न ण हवदिसमणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि। जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे ।।२६४।। (हरिगीत) सूत्र संयम और तप से युक्त हों पर जिनकथित। तत्त्वार्थ को ना श्रद्धहें तो श्रमण ना जिनवर कहें।।२६४|| जो श्रमण सूत्र, संयम और तपसे संयुक्त होने पर भी यदि जिनवरकथित आत्मप्रधान पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता; तो वह श्रमण श्रमण नहीं है ह्र ऐसा आगम में कहा है। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "आगम के ज्ञाता तथा संयम और तप में स्थित होने पर भी जो श्रमण; अपने आत्मा के द्वारा ज्ञेयरूप से पिये (जाने) जानेवाले अनन्त पदार्थों से भरे हुए आत्मप्रधान इस विश्व का श्रद्धान नहीं करते, वे श्रमणाभास हैं।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं। इस गाथा के भाव को पंडित देवीदासजी १ इकतीसा सवैया और वृन्दावनदासजी १ कवित्त में प्रस्तुत करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी कृत कवित्त इसप्रकार है ह्र (कवित्त) संजम तप सिद्धांत सूत्र, इनहू करि जो मुनि है संजुक्त । जो जिनकथित प्रधान आतमा, सुपरप्रकाशक तेंवर शुक्त ।। तासुसहित जे सकल पदारथ, नहिं सरदहै जथा जिनउक्त । तब सो मुनि न होय यह जानो, है वह श्रमणाभास अजुक्त ।।५१।। जो मुनिराज सिद्धान्त सूत्रों के ज्ञाता और संयम व तप से युक्त हैं; फिर भी जिनवर कथित स्वपरप्रकाशक आत्मा है प्रधान जिसमें; ऐसे सम्पूर्ण पदार्थों का श्रद्धान नहीं करते; वे मुनिराज श्रमण नहीं, श्रमणाभास हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "जो मुनिराज सर्वज्ञकथित शास्त्रों को जानते हैं, अव्रतादि परिणाम टालते हैं, ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उपवास-व्रत-तपपूर्वक कषायमंदता के परिणाम करते हैं, उपसर्ग होने पर भी स्वरूप से च्युत नहीं होते; वे भी यदि तीन लोक के नाथ जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित आत्मा की श्रद्धा नहीं करते तो वे श्रमण नहीं; अपितु श्रमणाभास हैं। चारित्र का पालन करनेवाले होने पर भी जिसे आत्मा का भान नहीं, वे साधु नहीं है। जो मुनिराज आत्मा को यथार्थ जानते हैं, वे सुख की प्राप्ति करते हैं तथा जो मुनिराज आत्मा की श्रद्धा नहीं करते, वे व्रततपादि में लीन होनेपर भी साक्षात् श्रमणाभास ही हैं।" इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट रूप में यह कहा गया है कि यद्यपि आगम के ज्ञाता हों, संयम और तप को धारण करनेवाले हों; तथापि यदि आत्मा है प्रधान जिसमें ह्न ऐसे इस लोक का जिन्हें श्रद्धान नहीं हो तो वे श्रमण, श्रमण नहीं हैं, श्रमणाभास हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४१०-४११ २. वही, पृष्ठ ४११ ३. वही, पृष्ठ ४१८

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