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गाथा २६१-२६३
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प्रवचनसार अनुशीलन उक्त गाथाओं के भाव को पंडित देवीदासजी १ कवित्त, १ छप्पय और १ इकतीसा सवैया ह्र इसप्रकार कुल मिलाकर ३ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं और कविवर वृन्दावनदासजी १ माधवी, १ मनहरण, १ छप्पय और १ दोहा ह्र इसप्रकार कुल ४ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी कृत छन्द इसप्रकार हैं ह्र
(माधवी) तिहि कारन तैं गुन उत्तमभाजन, श्रीमुनि को जब आवत देखो। तब ही उठि वृन्द खड़े रहि कै, पद वंदि पदांबुज की दिशि पेखो।। गुनवृद्ध विशेषनि की इहि भांति, सदीव करो विनयादि विशेखो। उपदेश जिनेश को जान यही, विधि सों वरतो चहुसंघ सरेखो।।४७।।
वृन्दावन कवि कहते हैं कि उक्त कारणों से जब गुणवान उत्तम पात्र मुनिराजों को आता हुआ देखो तो; उसीसमय उठकर, खड़ा रहकर, चरणों की वंदना करके, चरण-कमलों की दिशा में ही देखते रहो। अनेक विशेषताओं के धनी गुणवृद्ध मुनिराजों की इसीप्रकार सदा विशेष विनयादि करना चाहिए। जिनेन्द्र भगवान का यह उपदेश है। यह जानकर चारों संघों के प्रति इसीप्रकार विनयपूर्वक वर्तन करना चाहिए।
(मनहरण) आवत विलोकि खड़े होय सनमुख जाय,
आदर सों आइये आइये ऐसे कहिकैं। अंगीकार करिकै सु सेवा कीजै वृन्दावन,
और अन्नपानादि सों पेखिये उमहिकै।। बहुरि गुननि की प्रशंसा कीजे विनय सों,
हाथ जोरे रहिये प्रनाम कीजै ठहिकै। मुनि महाराज वा गुनाधिक पुरुषनि सों,
याही भांति कीजे श्रुतिसीखरीति गहिकै।।४।। वृन्दावन कवि कहते हैं कि मुनिराजों को आता हुआ देखकर, खड़े होकर, उनके सन्मुख जाकर, आदरपूर्वक 'आइये, आइये' ह्र ऐसा कहकर,
अंगीकार करके, उनकी सेवा करना चाहिए और उत्साहपूर्वक उन्हें अन्नपानादि देना चाहिए।
मुनिराज एवं गुणवान पुरुषों की भी विनय से विशेष प्रशंसा करना चाहिए, हाथ जोड़कर प्रणाम करना चाहिए, शास्त्रों में लिखी शिक्षा के अनुसार यह सब करना चाहिए।
(छप्पय ) जे परमागम अर्थमाहिं, परवीन महामुनि । अरु संजम तप ज्ञान आदि, परिपूरित हैं पुनि ।। तिनहिं आवतौ देखि, तबहि मुनिहू कहूँ चहिये। खड़े होय सनमुख सुजाय, आदर निरबहिये ।। सेवा विधि अरु परिनाम विधि, दोनों करिवो जोग है। है उत्तम मुनिमगरीति यह, जहँ सुभावसुखभोग है।।४९।।
जो मुनिराज परमागम में प्रतिपादित शुद्धात्मपदार्थ में प्रवीन हैं; संयम, तप और ज्ञान आदि में परिपूर्ण हैं; उनको आता हुआ देखकर मुनिराजों का भी यह कर्तव्य है कि खड़े होकर, सन्मुख जाकर ऊपर कहे अनुसार निर्वाह करना चाहिए। जिनागम कथित शारीरिक सेवा और परिणामों की निर्मलता ह्न दोनों करना योग्य है। यह मुनियों की रीति है, जिसमें स्वाभाविक सुख का उपभोग होता है।
(दोहा) दरवित जे मुनि भेष धरि, ते हैं श्रमणाभास ।
तिनकी विनयादिक क्रिया, जोग नहीं है भास ।।५०।। मुनिभेष को धारण करनेवाले जो द्रव्यलिंगी श्रमणाभास हैं, उनके प्रति उक्त विनयादि क्रियायें करना योग्य नहीं है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
"मुनिराज को देखते ही विनयपूर्वक खड़ा होना चाहिए, उनके समक्ष जाकर विनयादि करना चाहिए। पश्चात् परीक्षापूर्वक मुनिराज में