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प्रवचनसार अनुशीलन मोक्ष प्राप्त करते हैं।"
इस गाथा के भाव को पंडित देवीदासजी १ तेईसा सवैया में और कविवर वृन्दावनदासजी १ मनहरण कवित्त में प्रस्तुत करते हैं। वृन्दावनदासजी कृत मनहरण छन्द इसप्रकार है ह्र
(मनहरण) अशुभोपयोग जो विमोह रागदोष भाव,
तास ते रहित होहि मुनि निरग्रंथ है। शुद्ध उपयोग की दशा में केई रमैं केई,
शुभ उपयोगी मथै विवहार पंथ है।। तेई भव्यजीवनि को तारें हैं भवोदधि तैं,
आपु शिवरूप पुन्यरूप पूज पंथ है। तिनही की भक्ति तैं भविक शुभथान लहैं,
ऐसे चित चेत वृन्द भाषी जैनग्रंथ है।।४६।। मोह-राग-द्वेषादि रूप अशुभोपयोग से रहित निर्ग्रन्थ मुनिराजों में अनेक मुनिराज तो शुद्धोपयोगदशा में रमण करते हैं और अनेक मुनिराज शुभोपयोगरूप व्यवहारिक पंथ में तत्त्व का मंथन करते हुए भव्यजीवों को संसार-समुद्र से पार करने में निमित्त बनते हैं तथा स्वयं शुद्धभावरूप या पुण्यभावरूप पंथ में स्थित हैं। वृन्दावन कवि कहते हैं कि उक्त मुनिराजों की भक्ति से भव्यजीव शुभस्थान को प्राप्त करते हैं ह्र ऐसा जैन ग्रन्थों में कहा है। इसलिए हे भव्यजनों ! इसमें चेतो।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
"मुनिराज को अशुभ परिणाम नहीं होते। उन्हें बाह्य-आभ्यन्तर निर्ग्रन्थदशा वर्तती है। निर्ग्रन्थदशा के बिना मुनिपना नहीं होता। मुनिराज कभी ध्यान में स्थिर होकर वीतरागी दशा में ठहरते हैं तो कभी पाँच महाव्रतादि के शुभ परिणाम में जुड़ते हैं। मुनिराज जगत के जीवों को
गाथा २६० तारने में निमित्त हैं। उनके प्रति भक्ति रखनेवाला जीव पुण्य को प्राप्त करता है।
भावलिंगी महासमर्थ मुनिराज को अन्तरदशा में अधिकता भी वर्तती है और विकल्प उठने पर उनके द्वारा शास्त्र की रचना भी हो जाती है। ऐसे मुनिराज धर्म के स्थान हैं, वे लोक को तारते हैं।
जो मुनिराज की भक्ति, वंदना, वैयावृत्ति आदि करते हैं, उन्हें लोकोत्तर पुण्य बँधता है। ___मुनिराज अन्य को तारने में निमित्त हैं। उनकी भक्ति करने वाला जीव पुण्यशाली है और वह स्वभाव में विशेष स्थिरता करके मोक्ष प्राप्त करता है।"
उक्त गाथा में यह कहा गया है कि सर्वप्रकार से सेवा के पात्र तो शुद्धोपयोगी सन्त ही हैं। साथ में जो शुभोपयोगी सन्त मिथ्यात्व और तीन कषाय चौकड़ी के अभाव से उत्पन्न शुद्धपरिणति से सम्पन्न हैं; पर अभी शास्त्रादि लिखने, पढने-पढानेरूप शुभोपयोग में हैं; वे भी सर्वप्रकार से सेवा करने योग्य हैं; परन्तु विषय-कषाय में संलग्न लोगों की सेवा कल्याणकारी नहीं है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३९१ ३. वही, पृष्ठ ३९३
२. वही, पृष्ठ ३९३ ४. वही, पृष्ठ ३९५
___ हवा, पानी और भोजन आदि, भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं; किन्तु दु:ख के कारण भौतिक जगत में नहीं, मानसिक जगत में विद्यमान हैं। जब तक अन्तर में मोह-राग-द्वेष की ज्वाला जलती रहेगी, तब तक पूर्ण सुखी होना संभव नहीं है। मोह-राग-द्वेष की ज्वाला शान्त हो; इसके लिए धर्म, धार्मिक आस्था और धार्मिक आदर्शों से अनुप्रेरित जीवन का होना अत्यन्त आवश्यक है।
ह्न तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-१७७