Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 107
________________ प्रवचनसार अनुशीलन रहे तो उसके फल में पुण्य बंधता है । अन्य मुनिराज और श्रावक ऐसे ज्ञानी मुनियों के पास तत्त्व समझकर सम्यग्दर्शनपूर्वक मोक्ष प्राप्त करते हैं। यदि वे जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते तो शुभभाव के फल में पुण्य बँध अवश्य करते हैं; अतः मुनिराज अन्य के लिए मोक्ष तथा पुण्य के कारण हैं। धर्म तो पुण्य-पापरहित चैतन्य के आश्रय से प्रगट होता है ह्र ऐसा माननेवाला ही सच्चा मुनि है। जो सच्चे मुनिराज की श्रद्धा करता है, वह आत्मद्रव्य की सच्ची श्रद्धा करता है। वह जीव भविष्य में विशेषस्थिरता पूर्वक मोक्ष प्राप्त करता है और किंचित् राग रहे तो पुण्यबंध करता है। २" इन गाथाओं में यही स्पष्ट किया गया है कि जो पुरुष विषय - कषाय के पोषण में मग्न हैं, विषय- कषाय की पूर्ति को सुख मानते हैं; ऐसे अज्ञानी जीवों का विषय-कषाय के पोषणरूप उपकार करना धर्मरूप कैसे हो सकता है, धर्म का कारण भी कैसे हो सकता है; वह तो साक्षात् पाप है। ऐसे पापी जीव स्व-पर का कल्याण कैसे कर सकते हैं। उनकी सेवा करना कल्याण का कारण नहीं है। २०४ जो ज्ञानी जीव स्व-पर के बीच भेदज्ञान करनेवाले हैं, विषयकषायों से विरक्त हैं; वे ज्ञानी जीव ही स्व-पर का कल्याण करनेवाले हैं। अत: उनकी सेवा करना भी कल्याण का कारण है। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३८८ २. वही, पृष्ठ ३८९ सम्यग्दर्शन की प्रतिज्ञा है कि ह्न “मुझे ग्रहण करने से, ग्रहण करनेवाले की इच्छा न होने पर भी, मुझे उसको बलात् मोक्ष ले जाना पड़ता है। इसलिए मुझे ग्रहण करने से पहले यदि वह विचार करे कि मोक्ष जाने की इच्छा बदल देंगे तो भी उससे काम नहीं चलेगा। मुझे ग्रहण करने के | बाद, मुझे उसे मोक्ष पहुँचाना ही चाहिए। ह्न तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ- १३६ प्रवचनसार गाथा २६० जो बात विगत गाथाओं में समझाई गई है; अब उसी बात को इस गाथा में विशेषरूप से स्पष्ट करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र असुभोवयोगरहिदा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा । णित्थारयति लोगं तेसु पसत्थं लहदि भत्तो ।। २६० ।। ( हरिगीत ) शुद्ध अथवा शुभ सहित अर अशुभ से जो रहित हैं। वे तार देते लोक उनकी भक्ति से पुणबंध हो || २६०|| अशुभोपयोग से रहित जो मुनिराज शुद्धोपयोग से या शुभोपयोग से सहित होते हैं, वे मुनिराज लोगों को तार देते हैं और उनके प्रति भक्तिवान जीव प्रशस्त पुण्य को प्राप्त करते हैं। इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “मोह, द्वेष और अप्रशस्त राग के उच्छेद से अशुभोपयोग से रहित मुनिराज समस्त कषायोदय के विच्छेद से कभी शुद्धोपयोग युक्त और कभी प्रशस्त राग के विपाक से शुभोपयोग से युक्त होते हैं । वे मुनिराज स्वयं मोक्षायतन होने से लोक को तार देते हैं और उनके प्रति भक्तिभाव से जिन लोगों का प्रशस्तभाव रहता है, वे लोग पुण्य के भागी होते हैं।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को सरलसुबोध भाषा में अत्यन्त स्पष्टरूप से इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं ह्र “शुद्धोपयोग और शुभोपयोग परिणत पुरुष पात्र हैं। निर्विकल्प समाधि के बल से, शुभाशुभ उपयोग से रहित काल में, कभी वीतरागलक्षण शुद्धोपयोग से सहित तथा कभी मोह, द्वेष और अशुभराग से रहित काल में, सरागलक्षण शुभोपयोग सहित होते हुए भव्यजीवों को तारते हैं और उनके प्रति भक्ति रखने वाले श्रेष्ठ भक्त स्वर्ग प्राप्त करते हैं और परम्परा से

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