Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 109
________________ प्रवचनसार गाथा २६१-२६३ अब आगामी गाथाओं में आचार्यदेव विगत गाथाओं में प्ररूपित विषयवस्तु को विस्तार से समझाते हैं और श्रमणाभासों की सभी प्रवृत्तियों का निषेध करते हैं। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं ह्र दिट्ठा पगदं वत्थं अब्भुट्टाणप्पधाणकिरियाहिं । वट्ठदु तदो गुणादो विसेसिदव्वो त्ति उवदेसो । । २६१ ।। अब्भुट्ठाणं गहणं उवासणं पोसणं च सक्कारं । अंजलिकरणं पणमं भणिदमिह गुणाधिगाणं हि ।। २६२ ।। अब्भुट्ठेया समणा सुत्तत्थविसारदा उवासेया । संजमतवणाणड्ढा पणिवदणीया हि समणेहिं । । २६३ ।। ( हरिगीत ) जब दिखें मुनिराज पहले विनय से वर्तन करो । भेद करना गुणों से पश्चात् यह उपदेश है || २६१ ॥ गुणाधिक में खड़े होकर अंजलि को बाँधकर । ग्रहण-पोषण-उपासन-सत्कार कर करना नमन || २६२ ॥ विशारद सूत्रार्थ संयम-ज्ञान-तप में आदय हों । उन श्रमणजन को श्रमणजन अति विनय से प्रणमन करें ।। २६३ ॥ प्रकृत वस्तु अर्थात् जिसका प्रकरण चल रहा है ह्र ऐसी नग्न दिगम्बर दशा को देखकर श्रमण ! प्रथम तो अभ्युत्थान आदि क्रियाओं द्वारा उनका योग्य सत्कारादि करो; बाद में गुणानुसार भेद करना ह्र ऐसा उपदेश है। शास्त्रों में, गुणों में अधिक के प्रति अभ्युत्थान, ग्रहण, उपासन, पोषण, सत्कार, हाथ जोड़ना और प्रणाम करना कहा है। श्रमणों के द्वारा जिनसूत्रों के मर्मज्ञ और संयम, तप और ज्ञान में समृद्ध श्रमण; अभ्युत्थान, उपासना और प्रणाम करने योग्य हैं। २०९ गाथा २६१ - २६३ आचार्य अमृतचन्द्र इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र " आत्मविशुद्धि की हेतुभूत प्रकृत वस्तु अर्थात् जिनका प्रकरण चल रहा है, उन श्रमणों के प्रति उनके योग्य क्रियारूप प्रवृत्ति से गुणाधिकतानुसार यथायोग्य व्यवहार करने का श्रमणों के लिए निषेध नहीं है। सत्कार, अपने से अधिक गुणवान के प्रति अभ्युत्थान, ग्रहण, उपासन, , अंजलिकरण और प्रणामरूप प्रवृत्तियाँ श्रमणों को निषिद्ध नहीं हैं । सूत्र और पदार्थों के विशद् ज्ञान द्वारा जिनके संयम, तप और स्वतत्त्व का ज्ञान प्रवर्तता है; केवल उन श्रमणों के प्रति ही अभ्युत्थानादि प्रवृत्तियाँ अनिषिद्ध हैं; उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासों के प्रति वे प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही हैं।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं में समागत अभ्युत्थानादि शब्दों को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि ह्र "स्वागतार्थ सामने जाना अभ्युत्थान है; स्वीकार करना ग्रहण है; शुद्धात्म भावना के सहकारी कारण के हेतु से सेवा करना उपासना है; शुद्धात्मभावना के सहकारी कारण के हेतु से भोजन, शयन आदि की चिन्ता करना पोषण है; भेदाभेदरत्नत्रयरूप गुण को प्रकाशित करना सत्कार है; अंजलि बाँधकर नमस्कार करना अजंलिकरण है और नमस्कार हो ह्र ऐसा वचन बोलना प्रणाम है। बहुत बहुत से शास्त्रों के विशेषज्ञ) तो हैं, पर चारित्र में अधिक नहीं हैं; वे भी यथायोग्य वंदन करने योग्य हैं; क्योंकि वे परमागम के अभ्यासी हैं। उनकी वंदना करने का दूसरा कारण यह भी है कि वे पहले से ही सम्यग्दर्शन, और सम्यग्ज्ञान में दृढ़तर हैं।"

Loading...

Page Navigation
1 ... 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129