Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ ११० प्रवचनसार अनुशीलन दिन में सभी वस्तुएँ भलीभांति दिखाई देती हैं; इसलिए हिंसा नहीं होती और सहजभाव से दया का पालन होता है। यही कारण है कि रात्रिभोजन का सर्वथा निषेध किया गया है और दिन में आहार अनिषिद्ध बताया गया है। यदि मन में रस (स्वाद) की आशा रखेंगे तो हृदय सदा अशुद्ध ही बना रहेगा और अन्तर में विद्यमान संयम का घात हो जावेगा । यही कारण है कि मुनिराज रसों की इच्छाओं का त्याग करके ही भोजन करते हैं। मद्य, मांस और मधु आदि जो महा अपवित्र घिनावनी वस्तुयें हैं; उनका तो मुनिराजों के सर्वथा त्याग होता ही है। जिस रसोई में ऐसी वस्तुएँ नहीं बनतीं, वह रसोई ही परमपवित्र रसोई है। उक्त सम्पूर्ण दोषों से रहित जो आहार बनता है; उसे ही युक्ताहार कहते हैं। वृन्दावन कवि कहते हैं कि ऐसे आहार को वीतरागभाव के धारक मुनिराज विचार पूर्वक ग्रहण करते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न "जिसप्रकार कोई व्यक्ति अपने कार्य (व्यापार-धंधे) में अत्यधिक व्यस्त हो तो उसे भोजन की वृत्ति अधिक उत्पन्न नहीं होती है; उसीप्रकार मुनिराज आत्मानन्द के अंतरस्वरूप अनुभव में ऐसे लीन हैं कि उन्हें अनेक बार आहार की वृत्ति उत्पन्न ही नहीं होती है। अन्तर में आहार लेना ही नहीं ह्र उन्हें ऐसा हठ नहीं है; किन्तु सहजता से ही उन्हें आहारवृत्ति टूट जाती है। __मुनिराज को आहार के कारण योग का नाश नहीं होता है; अन्तर में प्रमाद या गृद्धता का भाव हो तो योग का छेद होता है । गृद्धतापूर्वक एक ही बार में पेट भरकर आहार ले लेवें ह्र ऐसी लोलुपता का भाव भी मुनिराज को नहीं होता। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-१४३ २. वही, पृष्ठ-१४३ ३. वही, पृष्ठ-१४४ गाथा २२९ १११ यदि मुनिराज को पूर्णोदर आहार हो तो प्रतिहत योगवाला होने से उसे कथंचित् हिंसायतन कहा है। आहार के कारण हिंसा नहीं है, किन्तु अन्तर में तीव्र रागभाव होने से प्रमादपूर्वक अंतर की शांति नष्ट होती है, यही हिंसा है। जैसा निर्दोष मिले, वैसा आहार मुनि को होता है। किसी विशिष्ट प्रकार का आहार हो तो ही चले ह्र ऐसी वृत्ति मुनिराज को नहीं होती। मुनिराज को आहार की वृत्ति उठती है तो वे मात्र क्षुधा का नाश करने हेतु आहार लेते हैं। वहाँ जैसा आहार मिल जाए, वैसा ग्रहण करते हैं। __ मुनिराज स्वयं भिक्षा के लिए जाते हैं। कोई जंगल में आहार देने आवे और मुनिराज आहार ले लेवें ह्न ऐसा नहीं होता अथवा कोई पात्र में आहार लेकर आवें और मुनिराज आहार ले लेवें ह्र ऐसा भी नहीं होता।' दूध, दही रसयुक्त आहार हो तो ठीक है; दाँत नहीं है; अत: हलुआ आदि मिल जाए तो ठीक होगा ह्र ऐसी अपेक्षा मुनियों को नहीं होती। शरीर में रोग है; अत: किसीप्रकार का विशिष्ट आहार मिले ह्र ऐसी अपेक्षा भी उन्हें नहीं होती। मुनिराज को अन्तर में चैतन्य के ध्यान की ऐसी जमावट है कि देह और आहार से उन्हें उपेक्षा हो गई है। मुनिराज को चक्रवर्ती के समान विशिष्ट आहार मिले तो भी उन्हें उस आहार की लोलुपता नहीं होती तथा गृहस्थ श्रावक अपनी भक्ति-भावना के अनुसार जैसा आहार देते हैं, वैसा ही वे ग्रहण कर लेते है। सीधे मद्य-माँस तो मुनिराजों को नहीं होते; किन्तु उसे स्पर्शित कोई आहार भी मुनिराज नहीं लेते । मद्य के आहार में बड़ा पाप है। शास्त्र कहते हैं कि मद्य के १ बिन्दु में ६ गाँव जलाने जितना पाप लगता है। साधारण जैन को भी मद्य-माँस का भक्षण नहीं होता, यह तो महाहिंसा है। मद्यमाँस के प्रयोग से निर्मित लेप हो ह्र ऐसा भी कोई आहार या दवा मुनि को नहीं होती। जिसप्रकार मद्य-माँस में हिंसा होने से उसका निषेध किया १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-१४४ ३. वही, पृष्ठ-१४५ ५. वही, पृष्ठ-१४६ २. वही, पृष्ठ-१४५ ४. वही, पृष्ठ-१४५ ६. वही, पृष्ठ-१४६

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129