Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 73
________________ प्रवचनसार अनुशीलन अध्यात्मशास्त्र को नहीं जानता; वह पुरुष.. कर्मों का क्षय नहीं कर सकता । इसकारण मोक्षार्थियों को परमागम का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। " इसप्रकार हम देखते हैं कि आचार्य जयसेन इस गाथा की टीका में भी आगम के साथ-साथ अध्यात्म के प्रतिपादक परमागम के अभ्यास की अनिवार्यता सिद्ध करते हैं। इस गाथा के भाव को भी पंडित देवीदासजी एक छोटे से छन्द में ही निपटा देते हैं; पर कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को १ मत्तगयन्द सवैया और २ तेईसा कवित्त ह्न इसप्रकार ३ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं। नमूने के तौर पर एक छन्द इसप्रकार है ह्र ( मत्तगयन्द सवैया ) १३६ मुनि को नहीं आगमज्ञान, सो तो निज औ पर को नहिं जानै । आपु तथा पर को न लखे तब, क्यों करि कर्म कुलाचल भानै ।। जासु उदै जगजाल विषै, चिरकाल बिहाल भयो भरमाने । तातैं पढ़ो मुनि श्रीजिनआगम, तो सुखसों पहुँचो शिवथानै ।। १५ ।। जिन मुनिराजों को आगमज्ञान नहीं है, वे मुनिराज न तो स्वयं को जानते हैं और न पर को ही जानते हैं। जब वे स्व-पर को ही नहीं जानते तो फिर वे जिन कर्मों के उदय से चिरकाल से बेहाल होकर भ्रम में पड़कर जगजाल में फंसे पड़े हैं; उन कर्मरूपी पर्वतों को कैसे जान सकते हैं ? इसलिए हे मुनिजनो ! तुम जिनागम को पढो। ऐसा करोगे तो सहजभाव से मुक्ति प्राप्त कर सकोगे । आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "भगवान की वाणी (आगम) के बिना स्व-पर का भेदविज्ञान नहीं हो सकता। मैं ज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ, शरीर और कर्मादि मुझसे पर हैं, आत्मा स्व है और विकार पर है और आत्मा सकल लोकालोक को जाननेवाला ज्ञानस्वभावी परमपदार्थ है ह्र ऐसा ज्ञान भगवान की वाणी बिना नहीं होता । जिसे स्वपरभेदविज्ञान अर्थात् परात्मज्ञान नहीं है ह्र ऐसे गाथा २३३ १३७ जीव को मोहनीय आदि जड़ कर्मों का, राग-द्वेषादि भावकर्मों का तथा अपूर्णज्ञानरूप कार्य का नाश नहीं होता। स्व-पर के भेदविज्ञान में सच्चा आगम निमित्त होता है तथा आगम का उपदेशक भी ऐसा होना चाहिए जो स्व-पर का भेदविज्ञान करावे; क्योंकि जिसे स्व-पर का भेदविज्ञान नहीं है, उसे धर्म नहीं हो सकता । आगम का मर्म समझकर आगम की उपासना करे तो स्वपर भेदविज्ञान होकर राग-द्वेषादि भावकर्म, निमित्तरूप द्रव्यकर्म तथा ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप कर्मों का भी नाश होता है। इसप्रकार उक्त तीनों कर्मों का नाश करने के लिए स्वलक्ष्यपूर्वक सत्समागम से यथार्थता के साथ आगम का अभ्या करना चाहिए । यहाँ मात्र ‘आगमपूर्वक' न कहकर 'ज्ञानियों के श्रीमुख से आगम का यथार्थ उपदेश समझकर निर्णय करे तो स्वानुभव हो' ह्र ऐसा कहा है; किन्तु अज्ञानी जीव को उसका भान नहीं है। अतः मोक्ष के अर्थी जीवों को यथातथ्यरूप शास्त्रों का अर्थ समझना चाहिए। सभी प्रकार से सर्वज्ञ द्वारा कथित आगम का सेवन करना चाहिए ।" सब कुछ मिलाकर इस गाथा और उसकी टीकाओं में एक ही बात कही गई है कि जिस श्रमण को आगम और परमागम का ज्ञान नहीं है; वह श्रमण न तो सही रूप में स्वयं को ही जानता है और न पर को ही जानता है। इसप्रकार स्व को और पर को जाने बिना अर्थात् दोनों के बीच भेदज्ञान किये बिना कर्मों का नाश कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि कर्मों के नाश के लिए स्व और पर के बीच की सीमा रेखा जानना अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि इस सीमा रेखा को बिना स्वका ग्रहण और पर का त्याग कैसे संभव है ? कर्मों का नाश कर मुक्ति को प्राप्त करने के लिए आत्मज्ञान और स्व और पर के बीच में भेदविज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है; इसलिए आत्मज्ञान और भेदविज्ञान के लिए आत्मार्थियों को आगम और परमागम का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ १८० ३. वही, पृष्ठ १८९ ४. वही, पृष्ठ- १९० २. वही, पृष्ठ- १८७ ५. वही, पृष्ठ १९९

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