Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 81
________________ १५२ प्रवचनसार अनुशीलन आत्मा के भान बिना इन्द्रियों का दमन किया, शरीर को कृष किया; किन्तु इससे जन्म-मरण का अन्त नहीं होता। ___ यहाँ मात्र पुराने कर्म उदय में आकर खिरते हैं और राग-द्वेष की कर्ताबुद्धि के कारण पुनः नवीन कर्मबंधन होता है। जिन कर्मों को अज्ञानी अनंतभवों में दूर नहीं कर सकता ह ऐसे कर्मों का ज्ञानी शीघ्र ही मूलतः नाश करते हैं, इसी का नाम धर्म है, संवरनिर्जरा है। यहाँ ऐसा कहा है कि आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व ह्र इन तीनोंपूर्वक आत्मज्ञान हो तो ही मोक्षमार्ग होता है। आत्मज्ञान के बिना उक्त तीनों हो तो भी वह कार्यकारी नहीं है, फिर जिन जीवों के आगमज्ञान का ही ठिकाना नहीं है, उनकी तो क्या बात करें? अज्ञानी को अनेक कष्ट होने पर भी कर्मों का क्षय नहीं होता; किन्तु ज्ञानी के अल्प समय में ही कर्मों का क्षय होता है। मैं आत्मा चैतन्यस्वभावी हूँ,शरीरादि तथा शुभाशुभभाव मेरे ज्ञान के ज्ञेय हैं, मैं सभी को जाननेवाला हूँ, विकल्पों में तन्मय रहे बिना ही मैं जानता हूँह ऐसी सच्ची दृष्टि होने पर थोड़े समय में लीलामात्र में ही ज्ञानी कर्मों का नाश करता है। ____ अज्ञानी अनुकूल संयोगों में हर्ष और प्रतिकूल संयोगों में खेद करता है; अतः वह हर्ष-विषाद का भोक्ता है, उसे नवीन कर्मों का बंध होता है। ज्ञानी किसी भी संयोग को अनुकूल या प्रतिकूल नहीं मानता, वह उसका ज्ञाता रहता है; अतः उसे नवीन कर्मबंधन नहीं होता। इसप्रकार आत्मज्ञान ही मोक्षमार्ग का उत्तम साधन है।" इसप्रकार उक्त सभी ग्रन्थों में अनेक प्रतिकूलताओं में उग्र तप करते हुए भी अज्ञानी जीव के जितने कर्मों का नाश एक लाख करोड़ भवों में होता है; उतने कर्मों को ज्ञानी त्रिगुप्ति के बल से श्वांसमात्र में क्षय कर देता है' ह्न यह कहा गया है; किन्तु छहढाला नामक ग्रन्थ में पण्डित १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ-२२६ २. वही, पृष्ठ २२९ ३. वही, पृष्ठ २२९ ४. वही, पृष्ठ-२३२ गाथा २३८ १५३ दौलतरामजी एक लाख करोड़ भवों के स्थान पर मात्र एक करोड़ भव की बात करते हैं। उनका कथन मूलत: इसप्रकार है ह्र कोटि जनम तप तपैंज्ञान बिन कर्म झरे जे । ज्ञानी के छिन माँहि त्रिगुप्ति तैं सहज टरै ते ।। आत्मज्ञान के बिना करोड़ों जन्मों तक निरन्तर तप करते रहने पर भी अज्ञानी के जो और जितने कर्म झड़ते हैं; वे और उतने ही कर्मों को ज्ञानीजन त्रिगुप्ति के बल से क्षण भर में नष्ट कर देते हैं। ___ यदि इस अन्तर को हम यह कहकर टाल दें कि छन्द में स्थान की कमी के कारण ऐसा हो गया होगा; तथापि एक बात यह भी तो है कि अज्ञानी के निर्जरा होती ही कहाँ हैं; जिससे ज्ञानी की निर्जरा की तुलना की जा सके? वस्तुत: बात यह है कि बालतपादि के काल में अज्ञानी के जो कर्म झड़ते हैं; उस काल में आगामी कर्मबन्धन होते रहने से उक्त कर्म के झड़ने को मुक्ति के कारणरूप निर्जरा कहना मात्र उपचरित कथन ही है। एक बात यह भी विचारणीय है कि तप मुख्यत: मनुष्य गति में होता है और जब यह जीव दो हजार सागर को त्रसपर्याय प्राप्त करता हैतब उसमें मनुष्य के भव तो मात्र ४८ ही होते हैं। ऐसी स्थिति में एक लाख करोड़ भव होना कैसे संभव होगा? वस्तुत: बात यह है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रहित तपकी निरर्थकता तथा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान सहित तप की महिमा बताने के लिए ही उक्त कथन किया गया है। ___ यदि यह सत्य है तो फिर एक करोड़ और एक लाख करोड़ से क्या फर्क पड़ता है; क्योंकि दोनों कथनों से हमारे चित्त में सम्यग्दर्शन-ज्ञान पूर्वक किये गये तप से होनेवाली निर्जरा की महिमा तो आ ही जाती है। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि जो आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में शत सहस कोटि (एक लाख करोड़) भवों की बात कहते हैं; वे ही आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड की पाँचवीं गाथा में एक हजार

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