Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 101
________________ १९२ प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार इन गाथाओं में यह बात अत्यन्त स्पष्ट रूप से कही गई है कि शुभोपयोगी मुनिराज विना कारण सदा ही दूसरे मुनिराजों की सेवा में नहीं लगे रहते; अपितु जब कभी किसी शुद्धात्मपरिणति प्राप्त मुनिराज को, स्वस्थभाव को नाश करनेवाला विशेष रोग हो जाय; उस समय शुभोपयोगी सन्तों को उनकी सेवा करने का भाव आता है और उनकी सेवा करने रूप यथायोग्य प्रवृत्ति भी होती है; शेष काल में तो वे शुद्धात्मपरिणति प्राप्त करने के पुरुषार्थ में ही संलग्न रहते हैं। ___ शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध मुनिराजों की सेवा के निमित्त से ही वे शुभोपयोगी सन्त शुद्धात्मपरिणति शून्य लोगों से बातचीत करते हैं, अन्य किसी कारण से वे उनसे बातचीत नहीं करते। वस्तुत: बात यह है कि वैयावृत्ति के शुभभाव और तदनुसार प्रवृत्ति मुख्यरूप से ज्ञानी गृहस्थों (श्रावकों) के पाई जाती है, शुभोपयोगी सन्तों के जो यह गौणरूप से ही कही है। सम्यग्दृष्टि श्रमण और सम्यग्दृष्टि श्रावक ह दोनों को श्रद्धा की अपेक्षा शुद्धात्मा का आश्रय समान ही है; किन्तु चारित्र अपेक्षा मुनिराजों को शुद्धोपयोग की मुख्यता है और गृहस्थों को शुभोपयोग की मुख्यता है। यही कारण है कि दवाई आदि के लिए सामान्यजनों से सम्पर्क करने का भाव और तदर्थ प्रयास जितना गृहस्थ को सहज है, उतना सन्तों को नहीं। भेद-विज्ञानी का मार्ग स्व और पर को जानना मात्र नहीं है, स्व से भिन्न पर को जानना मात्र भी नहीं है, बल्कि पर से भिन्न स्व को जानना, मानना और अनुभवना है। यहाँ 'स्व' मुख्य है, 'पर' गौण । 'पर' गौण है, पूर्णत: गौण है; क्योंकि उसकी मुख्यता में 'स्व' गौण हो जाता है; जो कि ज्ञानी को कदापि इष्ट नहीं है। ह्न तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-१३२ प्रवचनसार गाथा २५५-२५७ विगत गाथाओं में शुभोपयेगियों के द्वारा की जानेवाली वैयावृत्ति का स्वरूप स्पष्ट करके अब इन गाथाओं में यह स्पष्ट करते हैं कि कारण की विपरीतता से फल में विपरीतता होती है। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैंह्न रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ।।२५५।। छदुमत्थविहिदवत्थुसुवदणियमज्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि ।।२५६।। अविदिदपरमत्थेसुय विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु । जुटुं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु ।।२५७।। (हरिगीत) एकविध का बीज विध-विध भूमि के संयोग से। विपरीत फल शभभाव दे बस पात्र के संयोग से ||२५५|| अज्ञानियों से मान्य व्रत-तप देव-गुरु-धर्मादि में। रत जीव बाँधे पुण्यहीनरु मोक्ष पद को ना लहें।।२५६|| जाना नहीं परमार्थ अर रत रहे विषय-कषाय में। उपकार सेवा दान दें तो जाय कुनर-कुदेव में।।२५७|| जिसप्रकार इस जगत में अनेकप्रकार की भूमियों में पड़े हुए एक से बीज धान्यकाल में विपरीतरूप से फलते हैं; उसीप्रकार प्रशस्तराग वस्तुभेद (पात्रभेद) से विपरीतरूप से फलता है। जो छास्थविहित वस्तुओं में अर्थात् छद्मस्थ के द्वारा कथित देवशास्त्र-गुरु-धर्मादि में एवं व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान और दान में रत होता है; वह जीव मोक्ष को प्राप्त नहीं होता; किन्तु सातात्मक (लौकिक सुखरूप) भाव को प्राप्त होता है। जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है और जो विषय-कषाय में अधिक

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