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प्रवचनसार गाथा २५२-२५४ २५१वीं गाथा में प्रवृत्ति के विषय में विभाग की बात आरंभ की थी; अब इन गाथाओं में कालविभागादि की बात स्पष्ट करते हैं। साथ में यह भी बताते हैं कि लौकिकजनों के सम्पर्क का क्या नियम है ? गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं ह्न रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं । दिट्ठा समणं साहू पडिवजदु आदसत्तीए ।।२५२।। वेजावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं । लोगिगजणसंभासा ण णिदिदा वा सुहोवजुदा ।।२५३।। एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परे त्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ।।२५४।।
(हरिगीत) श्रम रोग भूखरु प्यास से आक्रान्त हैं जो श्रमणजन | उन्हें लखकर शक्ति के अनुसार वैयावृत करो ।।२५२।। ग्लान गुरु अर वृद्ध बालक श्रमण सेवा निमित्त से। निंदित नहीं शुभभावमय संवाद लौकिकजनों से ||२५३| प्रशस्त चर्या श्रमण के हो गौण किन्तु गृहीजन ।
के मुख्य होती है सदा अर वे उसी से सुखी हो।।२५४|| रोग से, क्षुधा (भूख) से, तृषा (प्यास) अथवा श्रम से आक्रान्त श्रमण को देखकर साधु अपनी शक्ति के अनुसार वैयावृत्ति करो।
रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणों की सेवा के निमित्त से शुभोपयोग युक्त लौकिक जनों के साथ की बातचीत निन्दित नहीं है।
यह वैयावृत्तरूप प्रशस्त चर्या श्रमणों के गौणरूप से और गृहस्थों को मुख्य रूप से होती है ह ऐसा शास्त्रों में कहा गया है; क्योंकि गृहस्थ उसी से परमसुख को प्राप्त करते हैं।
गाथा २५२-२५४
१८९ इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है ह्र ____ "शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त मुनिराजों को शुद्धात्मपरिणति से च्युत करनेवाले उपसर्गादि का समय शुभोपयोगी मुनिराज की अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिकार करने की इच्छारूप प्रवृत्ति का काल है और उससे अतिरिक्त समय का काल अपनी शुद्धात्मपरिणति की प्राप्ति के लिए निवृत्ति का काल है।
शुद्धात्मपरिणति प्राप्त रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणों की सेवा के निमित्त से ही शुभोपयोगी श्रमण का शुद्धात्मपरिणति शून्य लोगों से बातचीत करना प्रसिद्ध है, शास्त्रों में निषिद्ध नहीं है; किन्तु अन्य निमित्त से भी प्रसिद्ध हो ह्न ऐसा नहीं है।
इसप्रकार शुद्धात्मा की प्रकाशक सर्वविरति को प्राप्त श्रमणों के कषायकण के सद्भाव से शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्त चर्यारूप शुभोपयोग गौणरूप प्रवर्तित होता है; क्योंकि वह शुभोपयोग शुद्धात्मपरिणति से विरुद्ध राग से संबंधित है।
सर्वविरति के अभाव में मुनि भूमिका के योग्य शुद्धात्मप्रकाशन का अभाव होने से कषाय के सद्भाव के कारण शुभोपयोगी गृहस्थों के मुख्य है। जिसप्रकार ईंधन को स्फटिक के संपर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है; उसीप्रकार गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है; इसलिए वह शुभोपयोग क्रमशः (परम्परा से) निर्वाण सुख का कारण है।"
इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन लिखते हैं कि "शुभोपयोगी मुनिराज आत्मस्थिरतारूप भावना को नष्ट करनेवाले रोगादि का प्रसंग होने पर वैयावृत्ति करते हैं; शेष समय में अपना अनुष्ठान करते हैं।
जब कोई शुभोपयोगयुक्त आचार्य, सराग चारित्रलक्षण शुभोपयोगियों