Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 94
________________ प्रवचनसार गाथा २४८- २४९ विगत गाथाओं में शुभोपयोगी श्रमणों का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ बताने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि ऐसी प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगियों के ही होती हैं। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं ह्र दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं । चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य ।। २४८ । । उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स । कायविराधणरहिदं सो वि सरागप्पधाणो से ।। २४९ ।। ( हरिगीत ) उपदेश दर्शन - ज्ञान पूजन शिष्यजन का परिग्रहण | और पोषण ये सभी हैं रागियों के आचरण ॥ २४८ ॥ तनविराधन रहित कोई श्रमण पर उपकार में। नित लगा हो तो जानना है राग की ही मुख्यता ।। २४९ ।। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का ग्रहण तथा उनका पोषण और जिनेन्द्र भगवान की पूजा का उपदेश सरागियों की चर्या है। जो श्रमण काय की विराधना से रहित चार प्रकार के श्रमण संघ का नित्य उपकार करता रहता है, वह श्रमण भी राग की प्रधानता वाला ही है । इन गाथाओं के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “अनुग्रह करने की भावनापूर्वक सम्यग्दर्शन- ज्ञान के उपदेश की प्रवृत्ति, शिष्य ग्रहण और उनके पोषण की प्रवृत्ति तथा जिनेन्द्र पूजन के उपदेश की प्रवृत्ति शुभोपयोगियों के ही होती है, शुद्धोपयोगियों के नहीं । संयम की प्रतिज्ञा होने से छह काय के जीवों की विराधना से रहित, शुद्धात्मपरिणति के रक्षण में निमित्तभूत, चार प्रकार के श्रमणसंघ का उपकार करने की प्रवृत्ति भी राग की प्रधानता के कारण शुभोपयोगियों के गाथा २४८ - २४९ ही होती है; शुद्धोपयोगियों के कदापि नहीं।” करते आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का भाव प्रस्तुत हुए एक प्रश्न उपस्थित करते हैं कि “शुभोपयोगियों के भी किसी समय शुद्धोपयोग रूप भावना दिखाई देती है और शुद्धोपयोगियों के भी किसी समय शुभोपयोगरूप भावना देखी जाती है; श्रावकों के भी सामायिक आदि के समय शुद्धभावना देखी जाती है। ऐसी स्थिति में शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगियों में भेद करना कैसे संभव है ?" उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि ह्न १७९ “आपका कहना ठीक ही है; परन्तु जो अधिकतर शुभोपयोगरूप आचरण करते हैं, यद्यपि वे किसी समय शुद्धोपयोगरूप भावना करते हैं; तथापि वे शुभोपयोगी ही कहलाते हैं तथा जो शुद्धोपयोगी हैं, वे भी किसी समय शुभोपयोगरूप वर्तते हैं; तो भी वे शुद्धोपयोगी ही हैं। जिसप्रकार जिस वन में आम्र के पेड़ अधिक हों, उस वन में कुछ नीम के भी पेड़ क्यों न हों, पर उसे आम्रवन ही कहते हैं । इसीप्रकार यहाँ शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगियों के संदर्भ में भी समझना चाहिए।" एक अपेक्षा यह भी तो हो सकती है कि अनन्तानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी के अभाव से होनेवाली शुद्धपरिणति सम्पन्न मुनिराज शुद्धोपयोग के काल में शुद्धोपयोगी हैं और शुभोपयोग के काल में शुभोपयोगी हैं । इसप्रकार छठवें सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले भावलिंगी संत शुद्धोपयोगी भी हैं और शुभोपयोगी भी हैं। श्रेणी का आरोहण करनेवाले सभी मुनिराज शुद्धोपयोगी ही हैं। साधु शब्द के पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के विशिष्ट अर्थों को भी आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि "अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी मुनि हैं, ऋद्धिप्राप्त साधु ऋषि हैं। क्षपकश्रेणी और उपशमश्रेणी ह्न दोनों श्रेणियों में आरूढ साधु यति हैं और अन्य सभी साधु अनगार हैं।

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