Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 95
________________ गाथा २४८-२४९ १८० प्रवचनसार अनुशीलन ऋषि चार प्रकार के होते हैं ह्न राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि । विक्रिया और अक्षीण ऋद्धि को प्राप्त साधु राजर्षि है, बुद्धि और औषधि ऋद्धि सहित साधु ब्रह्मर्षि हैं, आकाशगमन ऋद्धि सम्पन्न साधु देवर्षि हैं तथा केवलज्ञानी परमर्षि हैं। इन सभी के सुख-दुख आदि विषयों में समताभाव होने से सभी श्रमण हैं।" इन गाथाओं के भाव को पंडित देवीदासजी और कविवर वृन्दावनदासजी साधारणरूप में एक-एक छन्दों में ही प्रस्तुत करते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं ह्न “मुनिराज को उपदेश देने का विकल्प आवे और उनके श्रीमुख से संसार को भेदन करनेवाला उपदेश निकले तो मुनि ने अनुग्रह किया ह्र ऐसा कहा जाता है, किन्तु जबतक पात्र जीव न मिले, तबतक वे भी उपदेशादि में प्रवृत्ति नहीं करते।' आत्मा ज्ञाता-दृष्टा स्वरूप है, शरीरादि पदार्थ जड़ हैं। शुभराग विकार है। किसी को समझाने का भाव उत्पन्न हुआ, वह भी शुभराग है। इस शुभराग के कारण धर्म नहीं होता। मुनिराज कहते हैं कि हे भाई ! तुम हमारा और शुभराग का लक्ष छोड़कर स्वयं के ज्ञान-दर्शनमय आत्मा का श्रद्धान-ज्ञान करो, तुम्हें अवश्य धर्म होगा। हमारे कारण धर्म होगा ह ऐसा कदापि संभव नहीं है। इसप्रकार मुनिराज सदैव निज शुद्धस्वभाव के श्रद्धान-ज्ञान का ही उपदेश देते हैं। शुभोपयोगी मुनिराज राग के होने पर योग्य शिष्य को दीक्षा देते हैं। उसके पोषण की प्रवृत्ति की ओर लक्ष देते हैं। अभी, शिष्य अपने स्वभाव में स्थित नहीं है। निजस्वभाव का पूर्ण पोषण करने में समर्थ नहीं है; अत: आचार्यदेव शिष्य की योग्यतानुसार वर्तनेवाले राग को जानते हैं। श्रावकों के लिये जिनेन्द्र भगवान की पजा-भक्ति का भी वे उपदेश देते हैं, आदेश नहीं देते । रागी देवी-देवता अथवा अन्य किसी प्रतिमा १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३०३-३०४ २. वही, पृष्ठ ३०४ ३. वही, पृष्ठ ३०४ की पूजा आदि का वे उपदेश नहीं देते; किन्तु वीतरागी परमात्मा, जिनेन्द्र भगवान की पूजा का उपदेश अवश्य देते हैं। हमारे लिए यह आहार बनाओ ह्न ऐसी वृत्ति मुनिराज को नहीं होती। सम्यग्दृष्टि को अनेकों बार अशुभभाव भी होते हैं, किन्तु मुनिपना होने पर अंतरलीनता अत्यन्त बढ़ गई है। बाह्य परिग्रह अर्थात् वस्त्रादि का राग छूट गया है; अतः नग्न दिगम्बर दशा वर्तती है। ऐसे साधुपद के बाद केवलज्ञानदशा प्राप्त होती है, उसके बिना केवलज्ञान नहीं होता। अन्तर भानसहित लीनता बढने से राग घट गया है। रोग हो तो मुनिराज औषधि वगैरह ग्रहण करने का भाव नहीं करते । सम्यग्दृष्टि को औषधी सेवन का भाव होता है; किन्तु मुनिराज अशुभराग की प्रवृत्ति से अत्यन्त दूर है और शुभराग में भी मर्यादा वर्तती है। प्रतिज्ञा तो निजस्वभाव में रमणता की है; अतः परिग्रहादि के अशुभभाव टल गए हैं। पाप परिणामों का त्याग है और जो शुभभाव आते हैं ह्न वे भी धर्मात्मा के प्रति आते हैं। ऐसे साधुपद से आगे बढ़कर जीव केवलज्ञान पाता है। यहाँ कोई कहे कि अभी केवलज्ञान नहीं है, फिर मुनिपने का क्या काम ? उससे कहते हैं कि भाई ! केवलज्ञान का साधन मुनिपना है। उसकी सम्यक् श्रद्धा तो कर । सम्यक् श्रद्धा के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होगा और सम्यग्दर्शन के बिना मुनिपना अथवा मुक्ति नहीं होगी; अतः जैसा वस्तुस्वरूप है, वैसा श्रद्धान-ज्ञान करना चाहिए।" उक्त गाथाओं में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि शुद्धोपयोगी मुनिराजों के तो किसी भी प्रकार की सराग चर्या होती ही नहीं है; छठवें गुणस्थानवर्ती शुभोपयोगी सन्तों की भी सराग चर्या मर्यादित ही होती है। जो भी होती है, उसमें आत्मकल्याणकारी तत्त्वोपदेश, शिष्यों का ग्रहण और वे धर्ममार्ग में लगे रहें ह इस भावना से परिपोषण और गृहस्थों को तत्त्व उपदेश के साथ-साथ जिनपूजनादि करने का उपदेश ही होता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३०५ २. वही, पृष्ठ ३०९-३१०

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