Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 92
________________ १७४ प्रवचनसार अनुशीलन हैं, जबकि कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए ७ दोहे, २ द्रुमिला और १ माधवी ह्न इसप्रकार कुल १० छन्दों का उपयोग करते हैं। ये सभी छन्द मूलत: पठनीय हैं। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यहाँ कोई प्रश्न करता है कि समयसार में सम्यग्दृष्टि जीव को अर्थात् चतुर्थ गुणस्थानवर्ती ज्ञानी को निरास्रवी कहा है और यहाँ छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज को आस्रव सहित कहा। यह कैसे ? समाधान: सम्यग्दृष्टि दृष्टि की अपेक्षा निरास्रवी है और शुभोपयोगी मुनिराज अस्थिरता की अपेक्षा से आस्रवी है। अज्ञानी जीव अनादिकाल से शरीर की क्रिया और पुण्य में धर्म मानता आया था, अब शरीर मेरा नहीं, पुण्य की क्रिया मेरी नहीं, मैं तो ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ ह्र ऐसी श्रद्धा है; अतः वह विकार का स्वामी नहीं होता । अनंत संसार के कारणस्वरूप मिथ्यात्व, राग-द्वेष का आस्रव नहीं होता है; अतः दृष्टि अपेक्षा से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को समयसार में निरास्रवी कहा है। यहाँ चरणानुयोग का अधिकार है। मुनिराज को आत्मा का श्रद्धानज्ञान है। तीन कषाय चौकड़ी का अभाव होने पर भी महाव्रतादि के विकल्प उठते हैं; वह मलिनता बंध का कारण है; अतः यहाँ चारित्र की अपेक्षा से उन्हें आस्रवी कहा है। इसप्रकार अपेक्षा समझना चाहिए।" इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह बात कही गई है कि शुद्धोपयोग में लीन मुनिराज ही निरास्रवी हैं, छठवें गुणस्थान के शुभभावों में स्थित मुनिराज सास्रवी हैं। यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि छठवें गुणस्थान तक जिन प्रकृतियों की बंधव्युच्छुत्ति नहीं हुई है; उन प्रकृतियों का ही आस्रव-बंध उन्हें होता है । १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ २८६ - २८७ प्रवचनसार गाथा २४६ - २४७ विगत गाथा में शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी ह्र दो प्रकार के श्रमणों की चर्चा करने के उपरान्त अब इन २४६ एवं २४७वीं गाथाओं में शुभोपयोगी मुनियों का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ बतलाते हैं। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं ह्र अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ।। २४६ । । वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती । समणेसु समावणओ ण णिंदिदा रागचरियम्हि ।। २४७ ।। ( हरिगीत ) वात्सल्य प्रवचनरतों में अर भक्ति अर्हत् आदि में । बस यही चर्या श्रमणजन की कही शुभ उपयोग है || २४६ ॥ श्रमणजन के प्रति बंदन नमन एवं अनुगमन । विनय श्रमपरिहार निन्दित नहीं है जिनमार्ग में || २४७ || श्रमणों में पायी जानेवाली अरहंतादि की भक्ति और प्रवचनरत जीवों प्रति वात्सल्य शुभयुक्त चर्या है। श्रमणों के प्रति वंदन, नमस्कार सहित अभ्युत्थान (खड़े होना) और अनुगमनरूप विनीत प्रवृत्ति तथा उनका श्रम दूर करना राग चर्या में निन्दित नहीं है। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं " सकल संग के संन्यास रूप श्रामण्य होने पर भी कषायांश के आवेश वश से केवल शुद्धात्मपरिणतिरूप से रहने में स्वयं अशक्त मुनिराज के अर्थात् केवल शुद्धात्मपरिणतिरूप से रहनेवाले अर्हतादिक तथा शुद्धात्मपरिणतिरूप से रहने का प्रतिपादन करनेवाले प्रवचनरत जीवों के

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