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गाथा २४५
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शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार (गाथा २४५ से गाथा २७० तक)
मंगलाचरण
(दोहा) शुद्धोपयोगी श्रमण के जो होते शुभभाव।
वे ही शुभ उपयोग हैं भाषी श्री जिनराज॥ चरणानुयोगसूचकचूलिका में समागत आचरणप्रज्ञापन, मोक्षमार्गप्रज्ञापन अधिकार के उपरान्त अब शुभोपयोगप्रज्ञापन अधिकार आरंभ करते हैं । इस अधिकार की पहली और प्रवचनसार की २४५वीं इस गाथा में गौणरूप से शुभोपयोगियों को भी श्रमण बताया जा रहा है।
गाथा मूलत: इसप्रकार है तू समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि । तेसु वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ।।२४५।।
(हरिगीत) शुद्धोपयोगी श्रमण हैं शुभोपयोगी भी श्रमण।
शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं आसवी हैं शेष सब ||२४५|| शास्त्रों में कहा है कि शुद्धोपयोगी श्रमण हैं और शुभोपयोगी भी श्रमण हैं। उनमें शुद्धोपयोगी निराम्रव हैं और शेष अर्थात् शुभोपयोगी सास्रव हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इस प्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यहाँ यह कहा जा रहा है कि श्रामण्य परिणति की प्रतिज्ञा करके भी जो कषाय कण के जीवित होने से, समस्त परद्रव्यों से निवृत्तिरूपसुविशुद्ध दर्शन-ज्ञानस्वभावी आत्मतत्त्व में परिणतिरूप शुद्धोपयोग भूमिका में आरोहण करने में असमर्थ हैं; वे शुभोपयोगी जीव ह्र जो शुद्धोपयोग की
भूमिका के अत्यन्त नजदीक निवास कर रहे हैं, कषाय ने जिनकी शक्ति कुण्ठित की है और अत्यन्त आतुर मनवाले हैं; वे श्रमण, श्रमण हैं या नहीं? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि ह्र
प्राप्त करते मोक्षसुख शुद्धोपयोगी आतमा।
पर प्राप्त करते स्वर्गसुख ही शुभोपयोगी आतमा ।।११।। उक्त प्रतिपादन ग्यारहवीं गाथा में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने स्वयं किया है; इसलिए शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थ समवाय (एकसाथ रह सकने रूप संबंध) है। अत: शुभोपयोगी भी श्रमण हैं; क्योंकि उनके (तीन कषाय के अभावरूप) धर्म का सद्भाव है, किन्तु वे शुद्धोपयोगियों के समान नहीं हैं; क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायों को निरस्त किया होने से निरास्रव ही हैं और शुभोपयोगी के कषायकण अविनष्ट होने से सास्रव ही हैं। यही कारण है कि इन्हें शुद्धोपयोगियों के साथ नहीं लिया जाता; पीछे से गौणरूप में ही लिया जाता है।" ___ध्यान रहे यहाँ सातवें गुणस्थान और ऊपर के ध्यानारूढ़ मुनिराजों को शुद्धोपयोगी और जिनके मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्धपरिणति तो प्रगट हो गई है; पर उपयोग देवादिकी भक्ति, शास्त्र-स्वाध्याय आदि शुभभावों में लगा रहता है; उन्हें शुभोपयोगी मुनिराज कहा गया है। ध्यान रहे यहाँ मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनिराजों को शुभोपयोगी नहीं कहा जा रहा है।
उक्त संदर्भ में इसी गाथा की तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य जयसेन का निम्नांकित कथन दृष्टव्य हैह्र ___“निज शुद्धात्मा के बल से सम्पूर्ण शुभ-अशुभ संबंधी संकल्पविकल्प रहित होने से शुद्धोपयोगी मुनिराज निराम्रव ही हैं; शेष शुभोपयोगी मुनिराज मिथ्यात्व और विषय-कषायरूप अशुभ आस्रव का निरोध होने पर भी पुण्यासव सहित हैं ह्र ऐसा भाव है।"
पंडित देवीदासजी इस गाथा के भाव को एक छन्द में मात्र दुहरा देते