Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 89
________________ प्रवचनसार गाथा २४३-२४४ आगामी गाथायें इस मोक्षमार्गप्रज्ञापन अधिकार की अन्तिम गाथाएँ हैं। अतः इन गाथाओं में पूरे अधिकार का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए एकाग्रता ही मोक्षमार्ग है और अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं है तू यह स्पष्ट करते हैं। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं ह्र मुज्झदि वा रजदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज । जदि समणो अण्णाणी बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं ।।२४३।। अटेसुजोण मुज्झदिण हिरजदिणेव दोसमुवयादि। समणो जदिसो णियदंखवेदिकम्माणि विविहाणि ।।२४४।। (हरिगीत) अज्ञानि परद्रव्याश्रयी हो मुग्ध राग-द्वेषमय। जो श्रमण वह ही बाँधता है विविध विध के कर्म सब ||२४३|| मोहित न हों जो लोक में अर राग-द्वेष नहीं करें। नियम से वे श्रमण ही क्षय करें विध-विध कर्म सब ||२४४|| यदि श्रमण अन्यद्रव्य का आश्रयपूर्वक अज्ञानी होता हुआ मोहराग-द्वेष करता है तो वह विविध कर्मों से बंधता है और यदि पदार्थों में मोह-राग-द्वेष नहीं करता है तो वह ज्ञानी श्रमण नियम से विविध कर्मों को खपाता है। इन गाथाओं के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह "जो मुनि ज्ञानात्मक आत्मा को मुख्यरूपसे नहीं भाता; वह ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यों का आश्रय अवश्य करता है। परद्रव्यों का आश्रय करनेवाला वह मुनि ज्ञानात्मक आत्मा से भ्रष्ट अज्ञानी होता हुआ मोह-राग-द्वेष करता है और बंध को प्राप्त होता है; मुक्त नहीं होता । इसलिए अनेकाग्रता को मोक्षमार्गत्व सिद्ध नहीं होता। गाथा २४३-२४४ १६९ और जो मुनिराज ज्ञानात्मक आत्मा को मुख्यरूप से भाते हैं; वे मुनिराज ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यों का आश्रय नहीं करते। परद्रव्यों का आश्रय नहीं करनेवाले वे मुनिराज ज्ञानात्मक आत्मा से भ्रष्ट न होकर ज्ञानी होते हुए, मोह-राग-द्वेष नहीं करते और वे मुक्त ही होते हैं; बंध को प्राप्त नहीं होते । इसलिए एकाग्रता को ही मोक्षमार्गत्व सिद्ध होता है।" तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य जयसेन इन गाथाओं का भाव स्पष्ट करते हुए जो निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं, उसका भाव इसप्रकार है ह्र ___"जो मुनिराज निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा निज में एकाग्र होकर निजात्मा को नहीं जानते हैं; उनका चित्त बाह्यविषयों में जाता है, अपने ज्ञानानन्द स्वभाव से च्युत होता है; इसलिए वे मोह-राग-द्वेषरूप परिणमते हैं और अनेकप्रकार के कर्मों से बँधते हैं। इसकारण मुमुक्षुओं को एकाग्ररूप से अपने स्वरूप की भावना करना चाहिए। और जो मुनिराज देखे हुए, सुने हुए, भोगे हुए भोगों की इच्छारूप अपध्यान के त्यागपूर्वक अपने स्वरूप की भावना भाते हैं; उनका मन बाह्यविषयों में नहीं जाता । बाह्य पदार्थों की चिन्ता का अभाव होने से वे निर्विकार चैतन्यचमत्कार से च्युत नहीं होते । रागादि का अभाव होने से उनके विविधप्रकार के विविध कर्म नष्ट हो जाते हैं । इसलिए मुमुक्षुओं को निश्चल मन से अपने आत्मा की भावना करना चाहिए। ___ इसप्रकार वीतरागचारित्रसंबंधी विशेष कथन सुनकर कुछ लोग कहते हैं कि सयोग केवलियों के भी एकदेश चारित्र है, परिपूर्ण चारित्र तो अयोगी के अन्तिम समय में होगा। इसकारण अभी हमारे लिए तो सम्यक्त्व भावना और भेदज्ञान की भावना ही पर्याप्त है, चारित्र तो बाद में होगा। उनकी शंका का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि अभेदनय से ध्यान ही चारित्र है और वह ध्यान केवलियों के उपचार से कहा गया है; इसीप्रकार चारित्र भी उपचार से कहा है।

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