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गाथा २४०
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प्रवचनसार अनुशीलन निश्चल परिणति उत्पन्न होने से साक्षात् संयत ही है। ऐसे आत्मा को आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्व तथा आत्मज्ञान का युगपतपना सिद्ध होता है।"
इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति टीका में समिति, गुप्ति, पंचेन्द्रियविजय, जितकषाय को निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक समझाया है; जो मूलत: पठनीय है।
पण्डित देवीदासजी और कविवर वृन्दावनदासजी एक-एक छन्द में इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हैं; जो लगभग एक जैसे ही हैं। कविवर वृन्दावनदासजी का छन्द इसप्रकार है ह्र
(सवैया मात्रिका) जाके पंचसमिति सित सोभत, तीन गुपत उर लसत उदार । पंचिंद्रिनि को जो संवर करि, जीत सकल कषाय विकार ।। सम्यक्दर्श ज्ञान सम्पूरन, जाके हिये वृन्द दुतिधार । शुद्ध संजमी ताहि कहैं जिन, सो मुनि वरै विमल शिवनार ।।५।।
वृन्दावन कवि कहते हैं कि जिनके हृदय में शुभ्र पाँच समितियाँ और उदार तीन गुप्तियाँ सुशोभित हो रही हैं, जिन्होंने पंचेन्द्रिय को जीतकर कर्मों का संवर किया है और सम्पूर्ण कषायों के विकारों को जीत लिया है; जिनके हृदय में पूर्ण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की द्युति की धारा बह रही है; उन मुनिराजों को जिनराज शुद्ध संयमी कहते हैं और वे मुनिराज परमपवित्र मुक्तिरूपी कन्या का वरण करते हैं। ____ गुरुदेवश्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“इसप्रकार जिस पुरुष को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तो था ही, पश्चात् स्वभाव में दृढ़तापूर्वक स्थिरता हुई है। पाँच समिति की अंकुशित प्रवृत्ति से प्रवर्तन है। पाँच इन्द्रियों के निरोध से मन-वचन-काया का व्यापार विराम को प्राप्त हुआ है। आत्मा और कषायों का भेद जानकर कषायों को
१६१ पकड़कर मार डाला है अर्थात् विशेष पुरुषार्थपूर्वक वह अंतर रमणता कर रहा हैं। वहाँ उस पुरुष को विशुद्ध दर्शन ज्ञान मात्र स्वभावरूप रहते हुए स्वद्रव्य में वीतरागी दशा उत्पन्न हुई है; अतः वे साक्षात् संयत (मुनि) ही हैं और उन्हें आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व के युगपत्पना तथा आत्मज्ञान का युगपत्पना सिद्ध होता है।" ।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और आत्म-रमणतारूप निश्चयचारित्रपूर्वक पाँच समितियों के पालक, तीन गुप्तियों के धारक, पंचेन्द्रियों के निरोधक और जितकषायी (कषायों को जीतनेवाले) संत ही संयत हैं और ऐसे संतों के ही दर्शन-ज्ञान-चारित्र
और आत्मज्ञान का युगपत्पना सिद्ध होता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ-२५०
देह में विराजमान, पर देह से भिन्न एक चेतनतत्त्व है। यद्यपि उस चेतन तत्त्व में मोह-राग-द्वेष की विकारी तरंगे उठती रहती हैं; तथापि वह ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व उनसे भिन्न परम पदार्थ है, जिसके आश्रय से धर्म प्रगट होता है। उस प्रगट होनेवाले धर्म को सम्यग्दर्शनज्ञान और चारित्र कहते हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र दशा अन्तर में प्रगट हो, इसके लिए परम पदार्थ ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व की अनुभूति अत्यन्त आवश्यक है। उस अनुभूति को ही आत्मानुभूति कहते हैं। वह आत्मानुभूति जिसे प्रगट हो गई, 'पर' से भिन्न चैतन्य
आत्मा का ज्ञान जिसे हो गया, वह शीघ्र ही भव-भ्रमण से छूट जायेगा। 'पर' से भिन्न चैतन्य आत्मा का ज्ञान ही भेदज्ञान है। यह भेदज्ञान और आत्मानुभूति सिंह जैसी पर्याय में भी उत्पन्न हो सकती है और उत्पन्न होती भी है। अत: हे मृगराज ! तुझे इसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। ह्रतीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-४७