Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 82
________________ १५४ प्रवचनसार अनुशीलन करोड़ वर्ष की बात लिखते हैं। दर्शनपाहुड़ की उक्त गाथा इसप्रकार हैह्न सम्मत्तविरहिया णं सुठु वि उग्गं तवं चरंता णं । ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं ।।५।। (हरिगीत) यद्यपि करें वे उग्रतप शत-सहस-कोटि वर्ष तक। पर रत्नत्रय पावें नहीं सम्यक्त्व विरहित साधु सब ||५|| एक हजार करोड़ वर्ष तक उग्र तपरूप आचरण करते हुए भी सम्यक्त्व रहित साधु पुरुष बोधिलाभ को प्राप्त नहीं करते। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दर्शनपाहुड़ की गाथा में तो यह लिखा है कि एक हजार करोड़ वर्ष तप करते हुए भी सम्यक्त्व से रहित होने के कारण अज्ञानी बोधिलाभ प्राप्त नहीं करते और यहाँ प्रवचनसार में अज्ञानी के एक लाख करोड़ भवों तक तप करके कर्म झड़ने और ज्ञानी के श्वांस मात्र में उतने ही कर्म झड़ने की बात है। इन दोनों कथनों में महान अन्तर है; क्योंकि एक मनुष्य भव में एक करोड़ वर्ष तो हो सकते हैं; क्योंकि चौथे काल के आरंभ में मनुष्यों की आयु एक करोड़ पूर्व तक हो सकती है। भगवान ऋषभदेव की आयु ८४ लाख पूर्व थी। परन्तु एक लाख करोड़ मनुष्य भव होने में तो अपरिमित काल लग सकता है; क्योंकि दो हजार सागर में तप करने योग्य तो अधिक से अधिक २४ भव ही मिलते हैं। उसके बाद एकेन्द्रिय पर्याय में चले जाने पर अपरिमित काल तक दुबारा त्रसपर्याय में आना संभव नहीं होता । ऐसी स्थिति में आप कल्पना कर सकते हैं कि एक लाख करोड़ मनुष्य भवों के प्राप्त होने में कितना समय लगेगा। सम्यक्त्वविरहित साधुओं को एक हजार करोड़ वर्ष तक तप करने पर भी बोधिलाभ (रत्नत्रय की प्राप्ति) नहीं हो; इसमें तो कोई अतिशयोक्ति है ही नहीं। यदि यह भी लिख देते कि उन्हें अनन्त काल तक बोधि की प्राप्ति नहीं होगी; तो भी कोई बात नहीं थी, क्योंकि सम्यक्त्व से रहित व्यक्तियों को तो बोधिलाभ कभी होनेवाला है ही नहीं। प्रवचनसार गाथा २३९ यद्यपि विगत गाथाओं में आगम ज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान और संयतत्व की महिमा का गुणगान किया गया है और उनकी असंदिग्ध उपयोगिता पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है; तथापि अब इस गाथा में यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व का युगपतपना भी कुछ नहीं कर सकता । गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो। विजदि जदि सो सिद्धिंण लहदिसव्वागमधरो वि ।।२३९।। (हरिगीत) देहादि में अणुमात्र मूर्छा रहे यदि तो नियम से। वह सर्व आगम धर भले हो सिद्धि वह पाता नहीं।।२३९|| जिसके शरीरादि के प्रति परमाणुमात्र भी मूर्छा वर्तती है; भले ही वह सम्पूर्ण आगम का पाठी हो; तथापि सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है ह्र __ “सम्पूर्ण आगम का सार हाथ में रखे आंवले के समान जानकर जो पुरुष भूत-वर्तमान-भावी स्वोचित पर्यायों के साथ सम्पूर्ण द्रव्यसमूह को जानने वाले आत्मा को जानता है; उसका श्रद्धान करता है और संयमित रखता है; उक्त पुरुष के आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व के युगपत्पना होने पर भी, यदि वह किंचित्मात्र भी मोहमल से लिप्त होने से शरीरादि के प्रति मूर्छा से उपरक्त रहने से निर्मल उपयोग में परिणत करके ज्ञानमात्र आत्मा का अनुभव नहीं करता; तो वह पुरुष मोहकलंकरूपी कीले से बंधे कर्मों से न छूटता हुआ सिद्ध नहीं होता। इसलिए आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व का युगपत्पना भी अकिंचत्कर है, कार्यकारी नहीं है।"

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