Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 76
________________ १४२ प्रवचनसार अनुशीलन “केवली, सिद्ध, संत, नारकी, निगोदिया आदि अनंत जीव, परमाणु से लेकर महास्कन्ध तक पुद्गल द्रव्य, धर्म, अधर्म, आकाश और असंख्य कालाणु ह्र ये समस्त द्रव्य हैं। आजतक अनंत जीव सिद्ध हुए; किन्तु उससे भी अनंतगुणा संसार में भटक रहे हैं। परमाणु भी अनंत है। यह आगमसिद्ध बात है। समस्त द्रव्यों में विद्यमान सहवर्ती गुण और क्रमप्रवृत्त पर्यायों का वर्णन आगम में प्राप्त होता है। आगम में प्रत्येक द्रव्य के अनेकान्तमय अनंत धर्मों का कथन प्राप्त होता है। समस्त पदार्थ आगमसिद्ध और मुनियों के ज्ञान में ज्ञात हैं; क्योंकि विचित्र गुण पर्यायवाले सभी द्रव्यों और उनके अनेक धर्मों को जानने की सामर्थ्य भावश्रुतज्ञान में है। केवली भगवान एक समय में समस्त द्रव्यगुण-पर्याय को प्रत्यक्ष परिपूर्ण जानते हैं, अतः सर्वज्ञ प्रत्यक्ष ज्ञान से परिपूर्ण हैं । मुनिराज परोक्षज्ञान से जानते हैं; अतः वे परोक्षज्ञान में परिपूर्ण हैं तथा वीतराग की वाणी वस्तुस्वरूप को कहने की सामर्थ्यवाली है; अत: वाणी भी परिपूर्ण है। आत्मा और जड़ की भिन्नता का ज्ञान आगमपूर्वक होता है । द्रव्यगुण और निर्मल पर्याय का ज्ञान भी आगम से ही होता है। शरीरादि पर हैं, पुण्य-पाप उपाधिभाव हैं और एक शुद्ध आत्मा ही निरुपधि तत्त्व है ह्र ऐसा ज्ञान आगम द्वारा ही होता है। आगम का परिपूर्ण ज्ञान मुनिराजों को वर्तता है, अतः उन्हें आगमचक्षु कहते हैं।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि आगम और परमागम के अभ्यास से सभी पदार्थों को जाना जा सकता है; अतः श्रमणजन आगमचक्षु होते हैं। प्रवचनसार गाथा २३६ विगत गाथाओं में आगमज्ञान की प्रतिष्ठा स्थापित करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह समझाते हैं कि आगमज्ञानपूर्वक तत्त्वश्रद्धान और ज्ञान-श्रद्धानपूर्वक संयम ह्न इसप्रकार ज्ञान, श्रद्धान और संयम की एकता ही मोक्षमार्ग है । गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्न आगमपुव्वा दिट्ठीण भवदि जस्सेह संजमो तस्स । णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो ।।२३६।। (हरिगीत) जिनागम अनुसार जिनकी दृष्टि न वे असंयमी। यह जिनागम का कथन है वे श्रमण कैसे हो सकें।॥२३६|| 'इस लोक में जिसकी आगमपूर्वक दृष्टि नहीं है, उसके संयम भी नहीं हो सकता' ह्न ऐसा सूत्र में कहा है तथा जो असंयत है, वह श्रमण कैसे हो सकता है? आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “जो जीव स्याद्वादमयी आगमज्ञानपूर्वक होनेवाली तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणवाली दृष्टि से शून्य हैं, उनके संयम ही सिद्ध नहीं होता; क्योंकि स्वपर के विभाग के अभाव के कारण काया और कषायों के साथ एकता के अध्यवसायी वे जीव विषयों की अभिलाषा का निरोध नहीं होने से छह काय के जीवों के हिंसक होकर सब ओर से प्रवृत्ति करते हैं; इसलिए उनके सर्वतः निवृत्ति का अभाव है। तात्पर्य यह है कि उनके किसी भी ओर से किंचित्मात्र भी निवृत्ति नहीं है। दूसरे परमात्मज्ञान के अभाव के कारण ज्ञेयों को क्रमश: जाननेवाली निरर्गल ज्ञप्ति होने से ज्ञानरूप आत्मतत्त्व में एकाग्रता की प्रवृत्ति का अभाव है। इसकारण उनके भी संयम सिद्ध नहीं होता। इसप्रकार उन्हें १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-२०१ २. वही, पृष्ठ-२०२-२०३ ३. वही, पृष्ठ-२०४ ४. वही, पृष्ठ-२०५

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