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प्रवचनसार अनुशीलन सामर्थ्य से स्व-पर की पहिचान करके ही मोह का नाश करता है।'
मुनिराज सतत् दया-दानादि विकल्पों को छोडकर ज्ञाननिष्ठ अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र की एकतारूप ही रहते हैं; अत: मुमुक्षुओं को आगमचक्षु का आश्रय लेना चाहिए।"
इसतरह हम देखते हैं कि इस गाथा का सम्पूर्ण बल आगम और परमागम के अभ्यास पर ही है; क्योंकि इन्द्रियज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान से भी ऐसा कुछ जानने में नहीं आता कि जो मुक्तिमार्ग की साधना में उपयोगी हो । तात्पर्य यह है कि बहिर्मुखी इन्द्रियज्ञान तो आत्महितकारी है ही नहीं, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान की भी यही स्थिति है; क्योंकि वे भी बहिर्मुखी हैं; मात्र पुद्गल को ही देखते-जानते हैं।
आगम के अभ्यासरूप श्रुतज्ञान ही एकमात्र ऐसा ज्ञान है कि जो आत्महित में साधन बनता है। उसमें सहयोगी मतिज्ञान को भी इसमें शामिल कर सकते हैं। भले ही ये दोनों ज्ञान परोक्षज्ञान हों, पर हैं उपयोगी; पर प्रत्यक्षज्ञान होने पर भी अवधि औरमन:पर्ययज्ञान उपयोगी नहीं; क्योंकि वे मात्र पुद्गल को ही जानते हैं, सबको नहीं; जबकि मति-श्रुतज्ञान का विषय सभी पदार्थ हैं। ___ हाँ, यहाँ एक प्रश्न अवश्य हो सकता है कि सिद्धों के समान अरहंत भगवान भी तो सर्वत:चक्षु ही हैं ?
हाँ, हैं, अवश्य हैं; क्योंकि वे भी अतीन्द्रिय ज्ञानी (केवलज्ञानी) हैं; उन्हें यहाँ सिद्धों में ही शामिल समझना चाहिए। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-१९८ २. वही, पृष्ठ-१९९
प्रवचनसार गाथा २३५ विगत गाथा में कही गई बात का ही समर्थन इस गाथा में किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि आगमरूप चक्षु से सभी कुछ दिखाई देता है।
गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं। जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा ।।२३५।।
(हरिगीत) जिन-आगमों से सिद्ध हों सब अर्थ गुण-पर्यय सहित। जिन-आगमों से ही श्रमणजन जानकर साधे स्वहित ।।२३५||
अनेकप्रकार की विचित्र गुण-पर्यायों से सहित सभी पदार्थ आगमसिद्ध हैं। उन्हें भी वे श्रमण आगम द्वारा देखकर ही जानते हैं।
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"सभी द्रव्य आगम द्वारा जाने जाते हैं; क्योंकि सभी द्रव्य विशेष स्पष्ट तर्कणा से अविरुद्ध हैं। आगम से वे सभी द्रव्य विचित्र गुणपर्यायवाले प्रतीत होते हैं; क्योंकि सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनेक धर्मों में व्यापक अनेकान्तमय होने से आगम को प्रामाणिकता प्राप्त है। इसलिए सभी पदार्थ आगमसिद्ध ही हैं।
वे सभी पदार्थ श्रमणों को स्वयमेव ही ज्ञेयभूत होते हैं; क्योंकि श्रमण विचित्र गुणपर्यायवाले सभी द्रव्यों में व्यापक अनेकान्तात्मक श्रुतज्ञानोपयोगरूप होकर परिणमित होते हैं। तात्पर्य यह है कि आगम चक्षुओं से कुछ भी अदृश्य नहीं है, अगम्य नहीं है।"
आचार्य जयसेन भी इस गाथा के भाव को तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं। इसीप्रकार प्रवचनसार परमागम और प्रवचनसारभाषाकवित्त में भी कोई विशेष बात नहीं है। स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
शुद्धनय के विषयभूत अर्थ (निज भगवान आत्मा) का आश्रय करनेवाले ज्ञानीजनों को अनंत संसार के कारणभूत आसव-बंध नहीं होते । रागांश के शेष रहने से जो थोड़े-बहुत आस्रव-बंध होते हैं, उनकी उपेक्षा कर यहाँ ज्ञानी को निराम्रव और निर्बंध कहा गया है।
ह्र सारसमयसार, पृष्ठ-१२