________________
१३२
प्रवचनसार अनुशीलन पण्डित देवीदासजी प्रवचनसारभाषाकवित्त में इस गाथा के भाव को जिनागम के अभ्यास की प्रेरणा देते हुए मात्र एक ही छन्द में प्रस्तुत कर आगे बढ जाते हैं; पर कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा और उसकी तत्त्वप्रदीपिका टीका के भाव को प्रस्तुत करते हुए २ मनहरण कवित्त और ८ दोहे ह्न इसप्रकार कुल १० छन्द लिखते हैं; जिनमें १ मनहरण छन्द इसप्रकार है ह्र
( मनहरण )
सरवज्ञभाषित सिद्धांत विनु वस्तुनि को,
जथारथ निहचै न होत सरवथा है । बिना सर्वदर्वनि को भलीभांति जानै कहो,
कैसे निज आतमा को जानै श्रुति मथा है ।। याही तैं मुनिंदवृन्द शब्दब्रह्म को अभ्यास,
आपरूप जानि तामें होहि थिर जथा है । तातैं शिवमारग को मूल जिन आगम है,
ताको पढ़ो सुनो गुनो यही सार कथा है ।। ६ ।। सर्वज्ञभासित सिद्धान्तों को माने बिना वस्तु का यथार्थ स्वरूप जानना संभव नहीं है और सभी पदार्थों का स्वरूप भली-भांति जाने बिना शास्त्रों मंथन से जानने में आनेवाले अपने आत्मा का स्वरूप कैसे जाना जा सकता है ?
वृन्दावन कवि कहते हैं कि इसीलिए मुनिगण शब्दब्रह्मरूप आगम का अभ्यास करके अपने आत्मा को जानकर उसी में स्थिर हो जाते हैं। इसलिए हम कहते हैं कि मुक्तिमार्ग का मूल जिनागम है; उसी को पढो, सुनो और गुनो अर्थात् उसी का मंथन करो ह्र इसी में सार है।
आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"इस गाथा में सर्वज्ञदेव द्वारा कहे हुए समस्त द्रव्यश्रुत को सामान्यरूप
गाथा २३२
१३३
से आगम कहा गया है। द्रव्यश्रुत के आगम और परमागम ऐसे दो भेद होते हैं । जीव तथा कर्मों के भेद को बतानेवाले द्रव्यश्रुत को आगम और समस्त आगम के सारभूत चिदानन्द एक भगवान आत्मा के प्रकाशक अध्यात्मरूप द्रव्यश्रुत को परमागम कहते हैं।
जिसे आगम का अभ्यास नहीं है, पदार्थों का निर्णय नहीं है; उस अज्ञानी जीव को अपना आत्मा जानने-देखनेवाला है ह्र ऐसी प्रतीति, ज्ञान और रमणता नहीं है। उसकी श्रद्धा अनेकरूप है, वह अनेक प्रकार से जानता है और अनेक विकल्पों से अपनी परिणति को खण्ड-खण्ड करता है । उसे सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप प्रवर्तनेवाली एकाग्रता नहीं होती। वह स्व - पर की भिन्नता को नहीं जानता ।
जो आत्मा की श्रद्धा करें, उसे ही धर्म होता है ह्र ऐसे आत्मा की जिसे प्रतीति हो, उसे व्यग्रता नहीं होती, एकाग्रता रहती है।
इसप्रकार भगवान आत्मा कृतनिश्चयी, निष्क्रिय, निर्भोग, सभी को युगपद् जाननेवाला, अनंत को जानने पर भी ज्ञान की अनंतता समाप्त नहीं हुई ह्र ऐसा अनेक को जानते हुए भी एकरूप रहनेवाला है; किन्तु जिस अज्ञानी जीव को आगम का अभ्यास नहीं है, आत्मा के स्वभाव का ज्ञान नहीं है; वह आत्मा के कृतनिश्चयी, निष्क्रिय, निर्भोग स्वरूप की श्रद्धा नहीं करता । "
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि आगम और परमागम के अभ्यास बिना पदार्थों का निश्चय नहीं होता और पदार्थों के निश्चय बिना अश्रद्धा जनित तरलता, परकर्तृत्वाभिलाषाजनित क्षोभ और पभोक्तृत्वाभिलाषा जनित अस्थिरता के कारण एकाग्रता नहीं होती और एकाग्रता बिना एक आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और वर्तनरूप शुद्धात्मप्रवृत्ति न होने से मुनिपना नहीं होता; इसलिए मुमुक्षुओं का प्रधान कर्तव्य शब्दब्रम्हरूप आगम और परमागम में प्रवीणता प्राप्त करना ही है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ- १७७
२. वही, पृष्ठ १७३
३. वही, पृष्ठ- १७०