Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 69
________________ प्रवचनसार अनुशीलन चित्सामान्य और चैतन्यविशेष रूप। जिसका प्रकाश ऐसे निज आत्मद्रव्य में। क्रमशः पर से पूर्णतः निवृत्ति करके। सभी ओर से सदा वास करो निज में।।१५।। हे मुनिवरो! इसप्रकार विशेष आदरपूर्वक पुराण पुरुषों के द्वारा सेवित, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा पृथक्-पृथक् अनेक भूमिकाओं में व्याप्त चारित्र को प्राप्त करके, क्रमश: अतुलनिवृत्ति करके, चैतन्यसामान्य और चैतन्यविशेषरूप से प्रकाशित निजद्रव्य में चारों ओर से स्थिति करो। आचरणप्रज्ञापनाधिकार के समापन पर लिखे गये इस छन्द में इस अधिकार की सम्पूर्ण विषयवस्तु का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि उत्सर्ग और अपवाद की मैत्रीवाले इस मुक्तिमार्ग को पुराणपुरुषों ने विशेष आदरपूर्वक अपनाकर मुक्ति प्राप्त की है; इसलिए हे मुनिजनो! तुम भी उन्हीं के समान जगत से पूर्ण निवृत्ति लेकर सामान्य-विशेषात्मक निजद्रव्य में स्थिति करो, लीन हो जाओ। एकमात्र इसमें ही सार है, शेष सब असार संसार है। इसप्रकार चरणानुयोगसूचकचूलिका नामक महाधिकार में समागत आचरणप्रज्ञापनाधिकार समाप्त होता है। आत्मा की चर्चा में थकावट लगना, ऊब पैदा होना आत्मा की अरुचि का द्योतक है। रुचि अनुयायी वीर्य' के अनुसार जहाँ हमारी रुचि है, हमारी सम्पूर्ण शक्तियाँ उसी दिशा में काम करती हैं। यदि हमें भगवान आत्मा की रुचि होगी तो हमारी सम्पूर्ण शक्तियाँ भगवान आत्मा की ओर ही सक्रिय होंगी और यदि हमारी रुचि विषय-कषाय में हुई तो हमारी सम्पूर्ण शक्तियाँ विषय-कषाय की ओर ही सक्रिय होंगी। ह्नगागर में सागर, पृष्ठ-४९ मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार ( गाथा २३२ से गाथा २४४ तक) मंगलाचरण (दोहा) जिनध्वनि से निज आत्मा जो जाने वे जीव । नित आतमरत अनुभवी रत्नत्रयी सदीव ।। आगम और परमागम के अध्ययन-मनन की प्रेरणा देनेवाले इस मोक्षमार्गप्रज्ञापन अधिकार में आरंभ की गाथाओं में आगम के अभ्यास की उपयोगिता पर भरपूर प्रकाश डालकर उसके बाद आनेवाली गाथाओं में यह बताया जायेगा कि परमागम में प्रतिपादित आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली आत्मानुभूति के बिना अकेले आगम के अभ्यास से कुछ भी होनेवाला नहीं है । यद्यपि यह परम सत्य है कि आगम के अभ्यास बिना वस्तु का सही स्वरूप समझ में आना संभव नहीं है, अतः आगम का अध्ययन करना अत्यन्त आवश्यक है; तथापि मुक्ति तो परमागम के अभ्यास पूर्वक होनेवाले शुद्धोपयोग से ही होगी, आगम-परमागम के अभ्यासरूप शुभभाव से नहीं। इस मोक्षमार्गप्रज्ञापन अधिकार की पहली गाथा और ग्रन्थाधिराज प्रवचनसार की २३२वीं गाथा की उत्थानिका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ह्र ऐसे एकाग्रता लक्षणवाले मोक्षमार्ग के प्रज्ञापन अधिकार में सबसे पहले मोक्षमार्ग के मूल साधनभूत आगम में व्यापार कराते हैं। तात्पर्य यह है कि आगमाभ्यास करने की प्रेरणा देते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र एयग्गदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु । णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ।।२३२।। (हरिगीत ) स्वाध्याय से जो जानकर निज अर्थ में एकाग्र हैं। भूतार्थ से वे ही श्रमण स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है।।२३२।।

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