Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 59
________________ १०९ १०८ प्रवचनसार अनुशीलन आहार लेते हैं। उनके आहार में मद्य-मांस-मधु का रंचमात्र भी संयोग नहीं होता । वे उसके सर्वथा त्यागी होते हैं। देह का नेह छोड़कर संयम की साधना के लिए ऐसा परमपवित्र आहार ही वे ग्रहण करते हैं और ऐसा आहार ही साधुओं के योग्य है। (चौपाई) एकै बार अहार बखाने । तासु हेत यह सुनो सयाने । मुनिपद की सहकारी काया । तासु सुथित या तैं दरसाया।।१३१॥ अरु जो बार-बार मुनि खाई। तबहि प्रमाददशा बढ़ि जाई। दरव-भाव-हिंसा तब लागै। संजमशुद्ध ताहि तजि भागै॥१३२।। सोऊ रागभाव तजि लेई। तब सो जोग अहार कहेई। ताते वीतरागता धारी । ऐसे साधु गहैं अविकारी ।।१३३।। जोभरि उदर करै मुनि भोजन । तो लै शिथिल न सधै प्रयोजन । जोग माहिं आलस उपजावै । हिंसा कारन सोउ कहावै ।।१३४।। ताः ऊनोदर आहारो। रागरहित मुनिरीति विचारो। सोई जोग अहार कहा है। संजमसाधन साध गहा है।।१३५।। जथालाभ को हेत विचारो। आपु कराय जु करैं अहारो। तब मनवांछित भोजन करई। इन्द्रियराग अधिक उर धरई॥१३६।। हिंसा दोष लगै धुव ताके । संजम भंग होहिं सब बाके। तातें जथालाभ आहारी । मुनि कहँ जोग जानु निरधारी ।।१३७।। भिच्छाकरि जो असन बखानै । तहां अरंभ दोष नहिं जाने। ताहू में अनुराग न धरई। सोई जोग अहार उचरई ।।१३८।। दिन में भलीभांति सब दरसत । दया पलै हिंसा नहिं परसत । रैन असन सरवथा निषेधी । दिन में जोग अहार अवेधी ।।१३९।। जो रस आस धरै मनमाहीं। तो अशुद्ध उर होय सदा ही। अंतरसंजमभाव सु घाते । तातै रस इच्छा तजि खाते ।।१४०।। मद्य मांस अरु शहद अपावन । इत्यादिक जे वस्तु घिनावन। तिनको त्याग सरवथा होई। सोई परम पुनीत रसोई॥१४१।। गाथा २२९ सकल दोष तजि जो उपजै है। सोई जोग अहार कहै है। वीतरागता तन सो धारी । गहै ताहि मुनि वृन्द विचारी ।।१४२।। मुनिराजों के लिए जो एक बार भोजन लेने की बात कही है; उसका हेतु यह है कि मुनिपद की मर्यादा पालन के लिए काया स्वस्थ रहकर सहयोगी बने। ___यदि मुनिराज बार-बार खायेंगे, अनेक बार खायेंगे तो निश्चितरूप से प्रमाददशा में वृद्धि होगी; तब उन्हें द्रव्यहिंसा और भावहिंसा का दोष लगेगा। ऐसे व्यक्ति को देखकर संयम उसे छोड़कर भाग जाता है। मुनिराज जब शुद्ध आहार भी रागभाव छोड़कर लेते हैं; तब उसे युक्ताहार कहते हैं; इसलिए वीतरागताधारी साधु ही अविकारी दशा को प्राप्त करते हैं। यदि पेट भर के भोजन करते हैं तो शिथिलता आ जाती है और आत्मध्यानरूप प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती; क्योंकि भरपेट भोजन योग (आत्मध्यान) में प्रमाद पैदा करता है। अत: इसे भी हिंसा का कारण कहते हैं। इसलिए ऊनोदर आहार ही रागरहित मुनिराजों की रीति है और उसे ही युक्ताहार कहा है तथा संयम की साधना के लिए मुनिराज उसे ही ग्रहण करते हैं। यथालब्ध भोजन का हेतु यह है कि यदि ऐसा नहीं होगा तो स्वयं बनाने या बनवाकर मनवांछित भोजन करने से उनके हृदय में अधिक राग पैदा होगा। ऐसे मुनिराजों को निश्चितरूप से हिंसा का दोष निरन्तर लगता रहेगा और उनका संयम भंग हो जायेगा । यही कारण है कि मुनिराजों को यथालब्ध आहारी होने से युक्ताहारी निर्धारित किया गया है। मुनिराजों के भिक्षाचरण पूर्वक आहार की जो बात कही गई है; उसमें आरंभजनित दोष नहीं लगता। भिक्षाचरण पूर्वक लिये गये आहार में भी मुनिराज अनुराग नहीं रखते; इसकारण उनके आहार को युक्ताहार कहा गया है।

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