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प्रवचनसार अनुशीलन के प्रति राग नहीं है । वे देह की शोभा-शृंगार नहीं करते । निज आत्मा की शक्ति को छिपाये बिना तप में लीन रहते हैं। आहार अथवा देह का एक रजकण भी मेरा नहीं है तू ऐसे भान सहित यथार्थ ज्ञान करते हैं। उन्हें तो अन्तर में आनंद का शांत रस उछल रहा है। मैं ज्ञायक हूँ और देहादि समस्त परज्ञेय हैं। मैं उन ज्ञेयों का नहीं हैं और वे ज्ञेय मेरे नहीं है तू इसप्रकार देह और परज्ञेय दोनों की भिन्नता का भान करके वे अन्तर आनन्द के अनुभव में ठहरते हैं।
वहाँ देह की उपेक्षा होने से उन्हें शक्तिप्रमाण तप होता है।'
मुनिराज को हठपूर्वक देह का निषेध नहीं है; क्योंकि जबतक शरीर की योग्यता है, तबतक शरीर का संयोग बना रहता है। शरीर की ममता छूट गई है, किन्तु शरीर को ही छोड़ दूं ह्र ऐसा हठ उनको नहीं है; अतः केवल देह मात्र का परिग्रह ही उन्हें वर्तता है। ममतापूर्वक होनेवाले अनुचित आहारादि भी उनके नहीं होते । इसप्रकार उनको युक्ताहारीपना सिद्ध है।
जो आत्मा अनशनस्वभाव को जानता है, उसे अनशनस्वभावलक्षण तप वर्तता है और योगध्वंस का नाश होता है। आहार ग्रहण करना आत्मा का स्वभाव है ह ऐसे परिणामपूर्वक परिणमन करना योगध्वंस है। श्रमण को ऐसा योगध्वंस नहीं होने से वे युक्त अर्थात् योगी हैं और उनका आहार युक्ताहार अर्थात् योगी का आहार है।"
इस गाथा में मात्र इतनी बात कही गई है कि श्रमण दो प्रकार से युक्ताहारी सिद्ध होता है। पहली बात तो यह है कि उसका ममत्व शरीर पर न होने से वह उचित आहार ही ग्रहण करता है; इसलिए वह युक्ताहारी है। दूसरी बात यह है कि 'आहार ग्रहण करना आत्मा का स्वभाव ही नहीं है। ह्न ऐसे परिणामरूप योग मुनिराजों के निरंतर वर्तता है; इसलिए वह श्रमण योगी है; उसका आहार युक्ताहार है, योगी का आहार है।
तात्पर्य यह है कि वह एषणा समिति पूर्वक आहार लेने से और अनशन स्वभावी होने से युक्ताहारी ही है।
प्रवचनसार गाथा २२९ विगत गाथा में मुनिराजों को युक्ताहारी सिद्ध किया था और अब इस गाथा में उसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र
एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खंण मधुमंसं ।।२२९।।
(हरिगीत) इकबार भिक्षाचरण से जैसा मिले मधु-मांस बिन।
अधपेट दिन में लें श्रमण बस यही युक्ताहार है ।।२२९।। मुनिराजों का वह युक्ताहार भिक्षाचरण से जैसा उपलब्ध हो जाय वैसा, रस की अपेक्षा से रहित नीरस, मधु-मांस से रहित, दिन में एकबार, अल्पाहार (ऊनोदर-अधपेट) ही होता है।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"दिन में एक बार आहार ही युक्ताहार है; क्योंकि उतने से ही श्रामण्यपर्याय का सहकारीकारणरूप शरीर टिका रहता है। एक से अधिक बार आहार लेना युक्ताहार नहीं है; क्योंकि शरीर के अनुराग से ही अनेक बार आहार लिया जाता है; इसलिए वह आहार अत्यन्त हिंसायतन (हिंसा का आयतन ह्र घर) होने से योग्य नहीं है, युक्ताहार नहीं है तथा अनेक बार आहार लेनेवाला साधु शरीरानुराग से सेवन करनेवाला होने से योगी (युक्ताहार का सेवन करनेवाला) नहीं है। ____ अपूर्णोदर (ऊनोदर-अधपेट) आहार ही युक्ताहार है; क्योंकि वह योग का घातक नहीं है। पूर्णोदर आहार (भरपेट भोजन) प्रतिहत योगवाला होने से कथंचित् हिंसायतन होता हुआ युक्ताहार नहीं है और पूर्णोदर आहार करनेवाला प्रतिहत योगवाला होने से योगी (युक्ताहार का सेवन करनेवाला) नहीं है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-१३६ २. वही, पृष्ठ-१३७
३. वही, पृष्ठ-१३९