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प्रवचनसार गाथा २२८
विगत गाथा और उसकी टीका में यह समझाया गया है कि युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी ही हैं और अब इस गाथा में उनके युक्ताहारत्व को सिद्ध करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है
केवलदेहो समणो देहे ण ममत्ति रहिदपरिकम्मो । आजुत्तो तं तवसा अणिगूहिय अप्पणो सत्तिं ।। २२८ । । ( हरिगीत )
तनमात्र ही है परिग्रह ममता नहीं है देह में।
शृंगार बिन शक्ति छुपाये बिना तप में जोड़ते ||२२८|| देहमात्र परिग्रह है जिसके, ऐसे श्रमण ने शरीर में भी ममत्व छोड़कर उसके शृंगारादि से रहित वर्तते हुए अपने आत्मा की शक्ति को छुपाये बिना शरीर को तप के साथ जोड़ दिया है।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“श्रामण्यपर्याय के सहकारी कारण के रूप में केवल देहमात्र उपधि श्रमण बलपूर्वक (हठ से) निषेध नहीं करता; इसलिए केवल देहवाला होने पर भी २२४वीं गाथा में बताये गये परमेश्वर के अभिप्राय को ग्रहण करके ‘वस्तुत: यह शरीर मेरा नहीं है, इसलिए अनुग्रह योग्य भी नहीं है, किन्तु उपेक्षा योग्य ही है' ह्र इसप्रकार देह के समस्त संस्कार (शृंगार) से रहित होने से परिकर्मरहित है। इसकारण उनके देह के ममत्व पूर्वक अनुचित आहार के ग्रहण का अभाव होने से युक्ताहारीपना सिद्ध होता है ।
दूसरे आत्मशक्ति को किंचित् मात्र भी छुपाये बिना समस्त आत्मशक्ति को प्रगट करके उन्होंने २२७वीं गाथा में कहे गये अनशनस्वभावी तप के साथ शरीर को सर्वारंभ से युक्त किया है; इसलिए आहार ग्रहण से होनेवाले
गाथा २२८
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योगध्वंस का अभाव होने से उनका आहार युक्ताहार ( योगी का आहार) है। इसप्रकार उनके युक्ताहारीपना सिद्ध होता है।”
इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका का ही अनुसरण करते हैं।
पंडित देवीदासजी इस गाथा के भाव को ३ कुण्डलियों के माध्यम से विस्तार से स्पष्ट करते हैं; जो मूलतः पठनीय हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को १ मनहरण कवित्त में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं ह्र
( मनहरण )
मुनि महाराज जू के केवल शरीरमात्र,
एक परिग्रह यह ताको न निषेध है। ताहू सों ममत्त छाँरि वीतराग भाव धारि,
अजोग अहारादि को त्यागें ज्यों अमेध है ।। नाना तप माहिं ताहि नित ही लगाये रहें,
आतम शकति को प्रकाशत अवेध है । सोई शिवसुन्दरी स्वयंवरी विधान माहिं,
मुनि वर होय वृन्द 'राधाबेध' बेध है ।। १२९ ।। मुनि महाराजों के एकमात्र शरीर के परिग्रह का निषेध नहीं किया गया है। उस शरीर से भी ममत्व छोड़कर वीतरागभाव को धारण करके अयोग्य आहारादि का वे पूर्णत: त्याग कर देते हैं और अनेक प्रकार के तपों में उस शरीर को लगाये रखते हैं और अभेद्य आत्मशक्ति को प्रकाशित करते हैं । वृन्दावन कवि कहते हैं कि शिवसुन्दरी के स्वयंवर विधान में ऐसे मुनिराजों का वरण होता है, उन्हें मुक्तिसुन्दरी के वर के रूप में चुना जाता है। तात्पर्य यह है कि ऐसे मुनिराजों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यह देह मेरी नहीं है' ह्र ऐसे भानपूर्वक मुनिराज को अत्यन्त वीतरागता प्रगट होने से देह के प्रति उपेक्षाभाव वर्तता है अर्थात् उन्हें देह