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प्रवचनसार अनुशीलन योगध्वंस का अभाव होने से उनका आहार युक्ताहार ( योगी का आहार) है। इसप्रकार उनके युक्ताहारीपना सिद्ध होता है।"
इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए आचार्य जयसेन तत्त्वप्रदीपिका का ही अनुसरण करते हैं।
इस गाथा के भाव को पण्डित देवीदासजी १ इकतीसा सवैया में और कविवर पण्डित वृन्दावनदासजी १ मनहरण कवित्त में प्रस्तुत करते हैं । कविवर वृन्दावनदासजी कृत छन्द इसप्रकार है ह्र ( मनहरण )
जाको चिनमूरत सुभाव ही सों काहू काल,
काहू परदर्व को न गहै सरधान सों। यही ताके अंतर में अनसन शुद्ध तप,
निचै विराजै वृन्द परम प्रमान सों ।। जोग निरदोष अन्न भोजन करत तऊ,
अनाहारी जानो ताको आतमीक ज्ञान सो । तैसे ही समितिजुत करत विहार ताहि,
अविहारी मानो महामुनि परधान सो । । १२८ । । जिन मुनिराजों के श्रद्धान में चैतन्यमूर्ति आत्मा अपने स्वभाव से ही किसी परद्रव्य को ग्रहण नहीं करता; इसलिए उन मुनिराजों के निश्चयनय
शुद्ध अनशन तप है; इसप्रकार वे एक प्रकार से अनाहारी ही हैं; तथापि जिसप्रकार मुनिराज भोजन का विकल्प होने पर आगमानुसार निर्दोष आहार लेते हैं, फिर भी अनाहारी माने जाते हैं; उसीप्रकार निश्चयनय से अविहारस्वभावी मुनिराज यद्यपि ईर्यासमितिपूर्वक विहार करते हैं; तथापि उन्हें अविहारी ही मानना चाहिए।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“आत्मा, स्वयं आहार- पानी के ग्रहण से रहित है अर्थात् वह स्वयं स्वभाव से ही अनशनस्वभाववाला है ह्न ऐसे आत्मा को जानने से और
गाथा २२७
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अनुभव करने से मुनिराज को सहज ही अनशन तप है तथा जब आहार की वृत्ति उत्पन्न होती है, तब भी दोषरहित युक्ताहारी होने से वे साक्षात् अनाहारी ही हैं । दोषसहित आहार उनके नहीं होता ।
मुनि को आहार ग्रहण की वृत्ति पाप तो है ही नहीं; अपितु उसे अनशन नाम का तप कहा है। अपने स्वभाव में आहार नहीं है ह्र ऐसे स्वभाव को जानते हैं और भूमिका के अनुसार एषणादोषरहित आहार लेते हैं; इसलिए उनके आहार की वृत्ति को अनशन तप कहा है ह्न यह चारित्र की भूमिका का स्वरूप है।
मुनिराज अतीन्द्रिय आत्मा का अनुभव करते हैं और निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं; इसलिए उन्हें अबन्धस्वभावी कहा है। वस्तुतः वे आहार नहीं करते, अपितु तप करते हैं; इसप्रकार वे साक्षात् अनाहारी हैं और वे ही तपोधन हैं।
इसप्रकार गाथा में तो मुनि को अनाहारी ही कहा है; परन्तु जिसप्रकार वे अनाहारी हैं; उसीप्रकार वे अविहारी भी हैं। यह बात भी इसमें आ जाती है यह समझना चाहिए। ३"
इस गाथा में मात्र इतनी बात कही गई है कि श्रमण दो प्रकार से युक्ताहारी सिद्ध होता है। पहली बात तो यह है कि उसका ममत्व शरीर पर न होने से वह उचित आहार ही ग्रहण करता है; इसलिए वह युक्ताहारी है। दूसरी बात यह है कि 'आहार ग्रहण करना आत्मा का स्वभाव ही नहीं है' ह्न ऐसे परिणामरूप योग मुनिराजों के निरंतर वर्तता है; इसलिए वह श्रमण योगी है; उसका आहार युक्ताहार है, योगी का आहार है।
तात्पर्य यह है कि वह एषणा समिति पूर्वक आहार लेने से और अनशन स्वभावी होने से मुनिराज युक्ताहारी ही है।
जिसप्रकार मुनिराज युक्ताहारी ही हैं, उसीप्रकार वे युक्तविहारी भी हैं; इसप्रकार वे युक्ताहार विहारी हैं।
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१. दिव्यध्वनिसार भाग - ५, पृष्ठ- १२८
२. वही, पृष्ठ- १३३
३. वही, पृष्ठ- १३४