Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 65
________________ १२० प्रवचनसार अनुशीलन गुणस्थान में अपवादमार्ग होता है; जो देवलोक आदि का कारण है। इसप्रकार मुनिराज अपवादमार्ग से उत्सर्गमार्ग में और उत्सर्गमार्ग से अपवादमार्ग में जाते-आते रहते हैं। यहाँ मूल बात यह है कि बाल, वृद्ध, थकित और रोगी मुनिराज इनमें से कौनसा मार्ग अपनाये ? इसका समाधान करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि वे अपवाद सापेक्ष उत्सर्गमार्ग और उत्सर्ग सापेक्ष अपवादमार्ग को अपनायें । यदि कोई मुनिराज उत्सर्गमार्ग के हठ से अतिकर्कश आचरण के पालने से मृत्यु को प्राप्त हो गये तो उनका संयम नष्ट हो जायेगा; क्योंकि देवलोक में संयम होता ही नहीं है; अतः यदि संयम की रक्षा करनी है तो ऐसा कठोर आचरण करने का हठ नहीं रखना चाहिए कि जिससे देह ही छूट जाये । इसीप्रकार मृदु आचरण के लोभ से यदि एकान्ततः मृदु आचरण ही रखा, तब भी संयम कायम नहीं रह सकेगा। इसलिए समझदारी इसी में है कि अपनी शक्ति अनुसार अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग और उत्सर्ग सापेक्ष अपवाद मार्ग को अपनाया जाना चाहिए। जो अपना नही है, उससे हम कितना ही राग क्यों न करें, राग करने मात्र से वह अपना नहीं हो जाता। जो अपना है, उससे हम कितना ही द्वेष क्यों न करें, द्वेष करने मात्र से वह पराया नहीं हो जाता । जो अपना है सो अपना है, जो पराया है सो पराया है। इसीप्रकार जो अपना है, उसे पराया मानने मात्र से वह पराया नहीं हो जाता और जो पराया है, उसे अपना मानने मात्र से वह अपना नहीं हो जाता; क्योंकि जो अपना है, वह त्रिकाल अपना है; जो पराया है, वह त्रिकाल पराया है। ह्र गागर में सार, पृष्ठ- २४-२५ प्रवचनसार गाथा २३१ विगत गाथा में यह कहा गया है कि उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग में मैत्रीपूर्वक आचरण होने से मुनिधर्म में सुस्थितपना रहता है; अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि यदि इनमें परस्पर मैत्री न रहे, विरोध रहे तो मुनिमार्ग में सुस्थितपना नहीं रहेगा। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र आहारे व विहारे देतं कालं समं खमं उवधिं । जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो । । २३१ । । ( हरिगीत ) श्रमण श्रम क्षमता उपधि लख देश एवं काल को । जानकर वर्तन करे तो अल्पलेपी जानिये ।। २३१ || जो श्रमण आहार अथवा विहार में; देश, काल, श्रम, क्षमता और उपधि को जानकर प्रवर्तन करते हैं; वे अल्पलेपी होते हैं आचार्य अमृतचंद्र तत्त्वप्रदीपिका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “क्षमता और ग्लानता का हेतु उपवास है और बालत्व और वृद्धत्व की अधिष्ठान शरीररूप उपधि है; इसलिए यहाँ टीका में बाल, वृद्ध, श्रान्त और ग्लान ही लिये गये हैं। तात्पर्य यह है कि यद्यपि मूल गाथा में क्षमा और उपधि शब्द हैं; तथापि टीका में उनका आशय लेकर बाल, वृद्ध, श्रान्त और ग्लान शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। 1 यदि देश-कालज्ञ भी बाल-वृद्ध - श्रान्त - ग्लानत्व के अनुरोध से आहार-विहार में प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से उसे अल्पलेप होता ही है, लेप का सर्वथा अभाव नहीं होता; इसलिए उत्सर्गमार्ग ही अच्छा है। यदि देश-कालज्ञ भी बाल-वृद्धत्व - श्रान्त-ग्लानत्व के अनुरोध से

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