Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 61
________________ गाथा २२९ ११३ ११२ प्रवचनसार अनुशीलन है; उसीप्रकार वनस्पति आदि की हिंसा से युक्त आहार भी मुनि को नहीं होता। ___ मुनि को शरीरमात्र का परिग्रह होने पर भी उस शरीर के प्रति उपेक्षा हो गई है तथा उन्हें उसके प्रति कोई विशिष्ट राग नहीं है। अन्तर में लीनता बढ़ गई है। अन्तर स्वसंवेदन आनन्द की उन्हें प्रचुरदशा वर्तती है। अरेरे! भगवान ने कहा है न; इसलिये यह सब पालन करना पड़े ह्र ऐसा मुनियों को नहीं होता; अपितु सम्पूर्ण दशा का पालन सहज होता है। हमारी जैसी सहजदशा है, वैसी भगवान ने जानी है और भगवान ने जैसी दशा का वर्णन किया, वैसी हमारी सहजदशा हुई है ह्र ऐसी मुनियों को अन्तर में सहजदशा की प्रतीति हुई है और यही उत्सर्गमार्ग है।" यद्यपि उक्त गाथा और उसकी टीका तथा वृन्दावनदासजी के छन्दों में इस गाथा का स्पष्टीकरण विस्तार से आ गया है; अतः अब उस पर और अधिक प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं है; तथापि उस सबका संक्षिप्त सार यह है कि मुनिराज दिन में एक बार भिक्षावृत्ति से सरस या नीरस, मद्य-मांस से रहित, समस्त हिंसायतन से मुक्त, जैसा जो कुछ प्रासुक आहार, सहजभाव से विधिपूर्वक प्राप्त हो जाय, उसमें से अपने शरीर को टिकाने के लिए वीतराग भाव से थोड़ा-बहुत ग्रहण कर लेते हैं। मुनिराजों का इसप्रकार का आहार ही युक्ताहार है। इसके बाद तात्पर्यवृत्ति टीका में ३ गाथाएँ प्राप्त होती हैं, जो तत्त्वप्रदीपिका में नहीं हैं। उनमें से आरंभ की दो गाथाएँ तो मांस के दोषों को बतानेवाली ही हैं और अन्त की एक गाथा में यह कहा गया है कि पाणिगत आहार प्रासुक होने पर भी अन्य को नहीं देना चाहिए। २२९वीं गाथा में युक्ताहार की व्याख्या करते हुए अन्त में यह कहा गया है कि मधु व मांस सर्वथा त्यागने योग्य हैं। उसी संदर्भ में प्रस्तुत आरंभ की दो गाथाओं में मांसाहार के दोषों को विस्तार से समझाया जा रहा है। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं ह्र पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु । संतत्तियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं ॥३२॥ जो पक्कमपक्कं वा पेसी मंसस्स खादि फासदि वा। सो किल णिहणदि पिंडं जीवाणमणेगकोडीणं ।।३३।। (हरिगीत) पकते हुए अर पके कच्चे माँस में उस जाति के। सदा ही उत्पन्न होते हैं निगोदी जीव वस ||३|| जो पके कच्चे माँस को खावें छुयें वे नारि-नर। जीवजन्तु करोड़ों को मारते हैं निरन्तर||३३|| पके, कच्चे अथवा पकते हुए मांस के टुकड़ों में, उसी जाति के निगोदिया जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं। इसलिए जो पके हुए या बिना पके हुए मांस के टुकड़ों को खाता है अथवा स्पर्श करता है; वह वस्तुतः अनेक करोड़ जीवों के समूह का घात करता है। तात्पर्यवृत्ति टीका में भी गाथाओं के भाव को ही दुहरा दिया है। आचार्य अमृतचन्द्र कृत पुरुषार्थसिद्ध्युपाय नामक श्रावकाचार में भी इसीप्रकार के दो छन्द प्राप्त होते हैं। लगता तो ऐसा है कि मानो उन्होंने इन्हीं गाथाओं का संस्कृत भाषा में पद्यानुवाद कर दिया है। वे छन्द इसप्रकार हैं ह्र (आर्या छन्द) आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तजातीनां निगोतानाम् ।।६७।। आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सतत निचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ।।६८।। कच्ची, पकी तथा पकती हुई मांसपेशियों में उसी जाति के सम्मूर्च्छन जीवों का निरन्तर उत्पादन होता रहता है। जो जीव कच्ची अथवा पकी १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-१४७ २. वही, पृष्ठ-१४७ ३. वही, पृष्ठ-१४७

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