Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ प्रवचनसार गाथा २०४ विगत गाथाओं में दीक्षा लेने की आरंभिक क्रिया-प्रक्रिया का निरूपण कर अब इस गाथा में दीक्षित साधु का स्वरूप स्पष्ट करते हैं, जो इसप्रकार है ह णाहं होमि परेसिंण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि । इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जधजादरूवधरो।।२०४।। (हरिगीत) रे दूसरों का मैं नहीं ना दूसरे मेरे रहे। संकल्प कर हो जितेन्द्रिय नग्नत्व को धारण करें।।२०४|| 'मैं दूसरों का नहीं, दूसरे पदार्थ मेरे नहीं है; इस लोक में मेरा कुछ भी नहीं है' ह्र ऐसा वस्तुस्वरूप निश्चित किया है जिसने, वह दीक्षार्थी जितेन्द्रिय होता हुआ, यथाजातरूपधर अर्थात् जैसा नग्न दिगम्बर पैदा हुआ था, वैसा ही नग्न दिगम्बर रूप धारण करता है। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "उसके बाद वह दीक्षार्थी यथाजातरूपधर होता है। तात्पर्य यह है कि वह सभी वस्त्राभूषण का त्याग कर नग्न दिगम्बर वेष धारण कर लेता है। __ इसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है ह्र 'प्रथम तो मैं किंचित्मात्र भी पर का नहीं हूँ और परपदार्थ भी किंचित्मात्र मेरे नहीं हैं; क्योंकि तात्त्विक दृष्टि से सभी पदार्थ पर के साथ के संबंध से रहित हैं। इसलिए इस षड्द्रव्यात्मक लोक में आत्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मेरा नहीं है' ह्र इसप्रकार व्यवस्थित हुई है बुद्धि जिसकी और जो परद्रव्यों के साथ स्व-स्वामी संबंध जिनका आधार है ह ऐसी इन्द्रियों और नोइन्द्रियों को जीतने से जितेन्द्रिय हआ है; वह दीक्षार्थी आत्मद्रव्य गाथा २०४ का स्वाभाविक शुद्धरूप धारण करने से यथाजातरूपधर होता है अर्थात् नग्न दिगम्बर दशा को धारण करता है।" आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति टीका में इसीप्रकार सामान्य अर्थ कर देते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को १ मनहरण और ४ दोहा ह्र इसप्रकार ५ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं। मनहरण छन्द में तो वे गाथा और टीका के भाव को मात्र दुहरा ही देते हैं; किन्तु दोहों में यथाजात-रूपधर पद की व्याख्या करते हैं; जो इसप्रकार हैं ह्र (दोहा) जथाजात को अर्थ अब, सुनो भविक धरि ध्यान । ग्रंथपंथ निग्रंथ जिमि, मंथन करी प्रमान ।।६।। स्वयंसिद्ध जसो कछुक, है आतम को रूप। तैसे निजघर में धरै, अमल अचल चिद्रूप ।।६३।। दूजो अर्थ प्रतच्छ जो, जैसो मुनिपद होय।। तैसी ही मुद्रा धरै, दरवलिंग है सोय ।।६४।। ऐसे दोनों लिंग को, धारत धीर उदार । जथाजात ताको कहैं, बरै सोइ शिवनार ।।६५।। मैं अब निर्ग्रन्थों के ग्रन्थों का मंथन करके उनके अनुसार यथाजात पद का अर्थ समझाता हूँ। हे भव्यजीवो ! उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो। आत्मा का जैसा जो कुछ अमल, अचल, स्वयंसिद्ध चैतन्यरूप है; उसी में अपनापन धारण करके जमे-रमे ह्न ऐसा यह यथाजात भावलिंग है। दूसरा अर्थ यह है कि मुनिराजों जैसा नग्न दिगम्बर रूप होता है, वैसी ही मुद्रा धारण करना द्रव्यलिंग है। इसप्रकार द्रव्यलिंग और भावलिंग ह्र दोनों को जो धीर और उदार व्यक्ति धारण करता है, उस रूप को यथाजातरूप कहते हैं और वह व्यक्ति मुक्तिरूपी नारी का वरण करता है। कविवर पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को एक इकतीसा सवैया में सरलता से प्रगट कर देते हैं।

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