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प्रवचनसार गाथा २१० विगत गाथाओं में छेदोपस्थापना का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह बताते हैं कि दीक्षाचार्य गुरु के अतिरिक्त छेदोपस्थापक गुरु भी होते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र
लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि। छेदेसूवट्ठवगा सेसा णिज्जावगा समणा ।।२१०।।
(हरिगीत) दीक्षा गुरु जो दे प्रव्रज्या दो भेद युत जो छेद है।
छेदोपस्थापक शेष गुरु ही कहे हैं निर्यापका ॥२१०॥ मुनिलिंग ग्रहण के समय दीक्षा देनेवाले गुरु दीक्षाचार्य है और जो भेदों (२८ मूलगुणों) में स्थापित करते हैं और संयम में छेद होने पर पुनर्स्थापित करते हैं ह्र इसप्रकार छेदद्वय में स्थापित करनेवाले शेष गुरु निर्यापक श्रमण हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"लिंग ग्रहण के समय निर्विकल्प सामायिक संयम के प्रतिपादक होने से दीक्षा देनेवाले आचार्य गुरु हैं और उसके बाद उसी समय सविकल्प छेदोपस्थापना के प्रतिपादक होने से छेद के प्रति उपस्थापक अर्थात् भेद में स्थापित करनेवाले निर्यापक हैं। इनके अतिरिक्त वे भी निर्यापक ही हैं, जो संयम के खण्डित होने पर उसी में पुनर्स्थापित करते हैं। इसप्रकार छेदोपस्थापक निर्यापक दीक्षाचार्य से भिन्न भी हो सकते हैं।"
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका के अनुसार ही करते हैं; तथापि 'अयमत्रार्थः' कहकर जो स्पष्टीकरण देते हैं; वह इसप्रकार हैं ह्र
“निर्विकल्प समाधिरूप सामायिक से एकदेशच्युति एकदेशछेद है
गाथा २१०
और सर्वथा च्युति सर्वदेशछेद है ह इसप्रकार एकदेश और सर्वदेश के भेद से छेद दो प्रकार है। जो उन दोनों में प्रायश्चित्त देकर, संवेग और वैराग्य को उत्पन्न करनेवाले परमागम के वचनों द्वारा संवरण करते हैं; वे निर्यापक शिक्षागुरु और श्रुतगुरु कहलाते हैं तथा दीक्षा देनेवाले आचार्य दीक्षागुरु हैं ह ऐसा अभिप्राय है।" ___ कविवर वृन्दावनदासजी उक्त गाथा के भाव को १ छप्पय और २ दोहों में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
(छप्पय) तिनको मुनिपद गहनविर्षे जे प्रथमाचारज । सो गुरु को है नाम प्रवृज्यादायक आरज।। अरु जब संजम छेद भंग होवै तामाहीं।
जो फिर थापन करै सो निरयापक कहवाहीं।। यों दोय भेद गुरु के तहां दिच्छादायक एक ही।
छेदोपस्थापन के सुगुरु बाकी होहिं अनेक ही ।।७९।। दीक्षार्थी को दीक्षा ग्रहण करने में जो सहायक होते हैं; उन प्रथम गुरुओं को दीक्षाचार्य कहते हैं और जब संयम का छेद या भंग होता है, उसमें से निकालकर पुनः स्वपद में स्थापित करते हैं, वे निर्यापक कहलाते हैं।
इसप्रकार गुरुओं के दो भेद हैं, उनमें दीक्षाचार्य एक ही होते हैं और छेदोपस्थापक निर्यापक गुरु अनेक होते हैं।
(दोहा) दिच्छा गहने बाद जो, संजम होवै भंग । एकदेश वा सर्व ही, ऐसो होय प्रसंग ।।८।। तामें फिर जोथिर करहिं,जतिपथरीतिप्रमान ।
ते निर्यापक नाम गुरु, जानो श्रमण सयान ।।८१।। दीक्षा ग्रहण करने के बाद जो संयम भंग होता है, उसमें ऐसा होता है कि या तो एकदेश भंग होगा या सर्वदेश भंग होगा। उक्त स्थिति में जो मुनिपद के योग्य पुनः स्थिरता प्रदान करते हैं; वे श्रमण निर्यापक गुरु हैं।
पण्डित देवीदासजी भी इस गाथा के भाव को १ छप्पय में इसीप्रकार स्पष्ट कर देते हैं।