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प्रवचनसार गाथा २२५
२२४वीं गाथा में यह कहा गया है कि उत्सर्गमार्ग ही श्रेष्ठ है, अपवादमार्ग नहीं; और अब इस गाथा में अपवादमार्ग में होनेवाली विशेष बातें समझा रहे हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्न
उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं । गुरुवयणं पिय विणओ सुत्तज्झयणं च णिद्दिनं ।। २२५ ।। ( हरिगीत )
जन्मते शिशुसम नगन तन विनय अर गुरु के वचन । आगम पठन हैं उपकरण जिनमार्ग का ऐसा कथन || २२५ || जिनमार्ग में यथाजातरूप नग्न दिगम्बर अवस्था को उपकरण कहा गया है और गुरु के वचन, सूत्रों का अध्ययन और विनय को भी उपकरण कहा गया है।
आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
"अपवादरूप अनिषिद्ध उपधि श्रामण्य पर्याय की सहकारी कारण के रूप में उपकार करनेवाली होने से उपकरण हैं, अन्य नहीं ।
वे उपकरण इसप्रकार हैं ह्न १. सभी प्रकार की कृत्रिमता से रहित, सहजरूप से अपेक्षित यथाजातरूपपने के कारण बहिरंगलिंगभूत काय पुद्गल, २. श्रवण योग्य तत्कालबोधक गुरु द्वारा कहे जाने पर आत्मतत्त्व द्योतक उपदेशरूप वचन पुद्गल, ३. अध्ययन किये जाने वाले नित्यबोधक, अनादिनिधन आत्मतत्त्व को प्रकाशित करने में समर्थ श्रुतज्ञान के साधनभूत शब्दात्मक सूत्र पुद्गल और ४. शुद्धात्मतत्त्वको करनेवाली दार्शनिक पर्यायोंरूप परिणमित पुरुष के प्रति विनम्रता का अभिप्राय प्रवर्तित करनेवाले चित्त पुद्गल ह्न ये चार अपवादमार्ग की उपकरणरूप उपधि हैं। इनका अपवाद मार्ग में निषेध नहीं किया गया है।
गाथा २२५
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तात्पर्य यह है कि काय की भांति मन और वचन भी वस्तुधर्म नहीं हैं।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में तत्त्वप्रदीपिका की बात को ही दुहरा देते हैं । इस गाथा के भाव को पंडित देवीदासजी १ इकतीसा सवैया में और कविवर वृन्दावनदासजी १ मनहरण कवित्त और २ दोहे ह्न इसप्रकार ३ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं । वृन्दावनदासजी के छन्द इसप्रकार हैं ह्र ( मनहरण ) काया को अकार जथाजात मुनिमुद्रा धेरै,
एक तो परिग्रह यही कही जिनंद है। फेर गुरुदेव जो सुतत्त्व उपदेश करें,
सोऊ पुग्गलीक वैन गहत अमंद है ।। बड़ेनि के विनै में लगावै पुग्गलीक मन,
तथा श्रुति पढ़े जो सुपुग्गल को छंद है । येते उपकर्न जैनपंथ में हैं मुनिनि के,
तेऊ सर्व परिग्रह जानो भविवृन्द है । । १२४ । । जिनेन्द्र भगवान ने एक तो यथाजात नग्न दिगम्बर मुनिमुद्रारूप पुरुषाकार काय को परिग्रह कहा है, दूसरे गुरुदेव के द्वारा दिये गये उपदेशरूप पौद्गलिक वचनों को परिग्रह कहा है, तीसरे बड़े लोगों की विनय में लगा हुआ पौद्गलिक मन परिग्रह है और चौथे शास्त्रों को पढ़ने योग्य पौद्गलिक छन्द भी परिग्रह है। हे भव्यजीवो ! जैनमार्ग में मुनियों के उक्त चार उपकरणों को भी परिग्रह माना गया है।
(दोहा)
एक शुद्धनिजरूप तैं, जेते भिन्न प्रपंच । ते सब परिग्रह जानिये, शुद्धधर्म नहिं रंच ।। १२५ ।। तातैं इनको त्यागि के, गहो शुद्ध उपयोग । सो उतसर्ग - सुमग कहो, जहँ सुभावसुखभोग ।। १२६ ।। एक आत्मा के शुद्धस्वरूप से भिन्न जितने भी प्रपंच हैं; उन सभी को परिग्रह जानो, उनमें शुद्धधर्म रंचमात्र भी नहीं है। इसलिए इनको त्यागकर शुद्धोपयोग को ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि स्वाभाविक सुख का भोग