________________
गाथा २२५
प्रवचनसार अनुशीलन करानेवाला यही उत्सर्गमार्ग है।
स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"अपवादरूप उपधि मुनियों के संयम में उपकार करनेवाली होने से उपकरणभूत है, अन्य कुछ भी उपकरणभूत नहीं है।'
शरीर, गुरुवचन, शास्त्र तथा विनयभाव में प्रवर्तित चित्तपुद्गल ह्र इन चार प्रकार के निमित्तों पर छठवें गुणस्थान में मुनिराज का ध्यान जाता है। मयूरपीछी और कमण्डलु तो शरीर नामक उपकरण में समा जाते हैं; क्योंकि जब शरीर पर लक्ष्य जाता है, तब मयूरपीछी और कमण्डलु पर भी ध्यान जाता है तथा जब वे भगवान की भक्ति करते हैं, वह विनय में समाहित हो जाती है।
इन उपकरणों की ओर से जो भी विकल्प उठते हैं, वे सभी विकल्प शुभभाव है; स्वभावधर्म नहीं है, अपितु अपवाद है। इन चार प्रकार का भाव मुनिराज को आता है; तथापि ये अपवाद वीतरागभावरूप धर्म नहीं है। यहाँ तो छठवें गुणस्थान में जिस सीमा तक राग की उत्पत्ति हो सकती है, उसका ज्ञान कराया है। इससे विशेष राग मुनिराज को नहीं होता।
जिसप्रकार काया पर लक्ष जाना आत्मा का स्वभाव नहीं है। उसीप्रकार गुरुवचन अथवा मन के ऊपर लक्ष जाए और राग उत्पन्न हो तो वह भी आत्मा का स्वभाव नहीं है।
१.जिस श्रमण की श्रामण्यपर्याय के सहकारी कारणभूत, सर्व कृत्रिमताओं से रहित यथाजातरूप के सम्मुख वृत्ति जाये, उसे काय का परिग्रह है। २. जिस श्रमण की गुरु-उपदेश के श्रवण में वृत्ति रुके, उसे वचनपुद्गलों का परिग्रह है। ३. जिस श्रमण की सूत्राध्ययन में वृत्ति रुके उसके सूत्रपुद्गलों का परिग्रह है। ४. जिस श्रमण के योग्य पुरुष के विनयरूप परिणाम हों उसके मन के पुद्गलों का परिग्रह है।
इसप्रकार अपवादरूप परिग्रह चार प्रकार का है। उत्सर्ग मार्ग में तो १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-११३ २. वही, पृष्ठ-११९
३. वही, पृष्ठ-११९
परिग्रह का लक्ष ही नहीं है। शरीर-मन अथवा वचन पर लक्ष जाए तो वह उपकरण कहने में आते हैं और निज स्वरूप में निर्विकल्प ठहरना मुनियों का उत्सर्ग मार्ग है, तथापि ऊपर कहे गए परिग्रहों पर लक्ष जाए तो भी छठवें गुणस्थान में मुनिदशा छिदती नहीं है।" । उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि जब मुनिराजों के आत्महित के निमित्तरूप शरीर, गुरुओं के वचन, जिनवाणी पठन और गुरुओं की विनय को भी उपकरण कहकर परिग्रह ही कहा है; तब अन्य परिग्रह की तो बात ही क्या करना ?
दूसरी विशेष बात यह है कि यहाँ जिनवाणी को नित्यबोधक और गुरुवचनों को तत्कालबोधक कहा है। शास्त्र तो हमें सहजभाव से चौबीसों घंटे सर्वत्र उपलब्ध हैं; हम जब चाहें, तब उन्हें पढ़ सकते हैं; पर गुरु के वचन सदा और सर्वत्र उपलब्ध नहीं रहते; वे तो हमें सुनिश्चित क्षेत्र-काल में ही प्राप्त होते हैं; इसलिए शास्त्रों को नित्यबोधक और गुरुवचनों को तत्कालबोधक कहा गया है।
तीसरी बात यह है कि कोई बात समझ में न आवे तो गुरुजी से पूछ सकते हैं; पर शास्त्रों के साथ यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। क्योंकि उनसे हमारी ओर इकतरफा मार्ग (वनवे ट्रैफिक) है। उनकी बात हमें तो उपलब्ध है, पर हम अपनी बात उन तक नहीं पहुँचा सकते।
चौथी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि शास्त्रों के माध्यम से हम हजारों वर्ष पुराने सन्तों के वचनों का भी ज्ञान कर सकते हैं; पर गुरु वचनों में तो वर्तमान गुरुओं पर ही निर्भर रहना होता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि शास्त्रों का अध्ययन और गुरुओं के प्रवचन ह्न दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं । दोनों की उपयोगिता भी असंदिग्ध है। यद्यपि इन उपकरणों की उपयोगिता असंदिग्ध है; तथापि यहाँ उन्हें उपधि (परिग्रह) के रूप में ही स्वीकार किया गया है और अपवादमार्ग में ही स्वीकार किया गया है, उत्सर्गमार्ग में नहीं। . १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-१२० २. वही, पृष्ठ-१२०