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प्रवचनसार गाथा २२६ विगत गाथा में शरीर को उपधि कहा था, उपकरण कहा था; अब इस गाथा में उक्त अनिषिद्ध उपधि/शरीर के पालन की विधि पर प्रकाश डालते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र
इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्हि लोयम्हि । जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो ।।२२६।।
(हरिगीत ) इहलोक से निरपेक्ष यति परलोक से प्रतिबद्ध ना।
अर कषायों से रहित युक्ताहार और विहार में ||२२६।। कषायरहित श्रमण इस लोक से निरपेक्ष और परलोक से अप्रतिबद्ध होने से युक्ताहार-विहारी होते हैं।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"अनादिनिधन एकरूप शुद्धात्मतत्त्व में परिणत होने से मुनिराज समस्त कर्मपुद्गलों के विपाक से अत्यन्त भिन्न स्वभाव के द्वारा कषायरहित होने से, वर्तमान काल में मनुष्यत्व के होते हुए भी स्वयं समस्त मनुष्य व्यवहार से उदासीन होने के कारण इस लोक के प्रति निरपेक्ष (निस्पृह) हैं तथा भविष्य में होनेवाले देवादि भवों के अनुभव की तृष्णा से शून्य होने के कारण परलोक के प्रति अप्रतिबद्ध हैं; इसलिए जिसप्रकार घट-पटादि ज्ञेयपदार्थों के जानने के लिए दीपक में तेल डाला जाता है और बाती को सुधारा जाता है; उसीप्रकार शुद्धात्मा को प्राप्त करने के लिए मुनिराज शरीर को युक्ताहार देते हैं और उसके माध्यम से युक्त विहार करते हैं; इसलिए वे युक्ताहारविहारी होते हैं।
यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि कषायरहित होने से मुनिराजों के वर्तमान मनुष्य शरीर के अनुराग से अथवा भावी देव शरीर के अनुराग से आहार
गाथा २२६ विहार में अयुक्त प्रवृत्ति नहीं होती; किन्तु शुद्धात्मतत्त्व की साधक श्रामण्य पर्याय के पालन के लिए वे युक्ताहारविहारी ही होते हैं।"
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका का ही अनुसरण करते हैं; तथापि भावार्थ में दीपक के उदाहरण को इसप्रकार सांगोपांग घटित करते हैं ह्र ___ "इस लोक और परलोक से निरपेक्ष व कषाय रहित होने से वे मुनिराज शरीररूपी दीपक में ग्रास (कौर) रूपी तेल देकर परमार्थ पदार्थरूप घट-पट को प्रकाशित करते हैं; देखते हैं, जानते हैं। ऐसे मुनिराज ही युक्ताहारविहारी हैं, अन्य नहीं।" __ पण्डित देवीदासजी १ इकतीसा सवैया और वृन्दावनदासजी १ मनहरण कवित्त में इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करते हैं। वृन्दावनदासजी का छन्द इसप्रकार है ह्र
(मनहरण) जैसे घटपटादि विलोकिवे को भौन माहिं,
दीपविर्षे तेल घालि बाती सुधरत है। तैसें ज्ञानजोति सों सुरूप के निहारिवे को,
आहार-विहार जोग काया की करत है।। यहां सुखभोग की न चाह परलोक हू के,
सुख अभिलाष सों अबंध ही रहत है। रागादि कषायनि को त्यागे रहै आठों जाम,
ऐसो मुनि होय सो भवोदधि तरत है ।।१२७।। जिसप्रकार भवन में घटपटादि पदार्थों के देखने के लिए दीपक में तेल डाल कर बाती को सुधारते हैं; उसीप्रकार ज्ञानरूपी ज्योति से शुद्धात्मस्वरूप का अनुभव करने के लिए शरीर की युक्ताहारविहार से संभाल करते हैं। ऐसा करने में न तो उन्हें इस भव संबंधी सुख भोगने की चाह है और न परलोक के सुख की अभिलाषा ही है; इसकारण वे अबंध ही रहते हैं।