Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 39
________________ गाथा २१९ प्रवचनसार अनुशीलन वस्तुस्थिति का यही स्वरूप होने के कारण श्रमणों ने भी अरहन्तों के समान समस्त परिग्रह को छोड़ दिया है। यही मुनिमार्ग की अखण्ड धारा है। इससे विरुद्ध मुनिदशा माननेवाला वीतराग मार्ग की निंदा करता है। तीर्थंकर भगवान उसी भव से मोक्ष जाते हैं, यह बात निश्चित है; तथापि बाह्य में जबतक समस्त परिग्रह को छोड़कर, वे वीतरागी मुनिपना प्राप्त नहीं करते, तबतक उन्हें केवलज्ञान नहीं हो सकता। तीर्थंकर भगवंतों ने भी इसी दशापूर्वक केवलज्ञान प्राप्त किया है और दूसरे जीव इससे उल्टा मानें तो वे तीर्थंकरों के मार्ग से बाहर ही है।' कोई जीव अभक्ष्य आहार ग्रहण करता हो और कहें की हमें अन्तर में अशुभभाव नहीं है, तो यह संभव नहीं ? अशुभभाव के बिना ऐसे निमित्तों पर लक्ष जा ही नहीं सकता। उसीप्रकार तीव्र राग के बिना वस्त्रादि ग्रहण करने का भाव हो ही नहीं सकता और इस तीव्र राग के साथ मुनिपना भी नहीं हो सकता ।' अहाहा ! संतों ने जैसा मुक्तिमार्ग कहा है, वह वैसा ही है, उसमें कोई अपवाद नहीं है, वह विपरीत स्वरूप भी नहीं है। जो व्यक्ति इस मार्ग का विरोध करेगा, वह संसार में रखड़ेगा; किन्तु अन्य रीति से यह मार्ग कदापि संभव नहीं है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि मारने के भाव बिना काया के निमित्त से जीवों का घात तो हो सकता है; पर रागादि के बिना परिग्रह का संग्रह नहीं हो सकता; इसलिए ऐसा तो कदाचित हो सकता है कि जीवों का घात होने पर भी बंध न हो; पर ऐसा कभी नहीं हो सकता कि परिग्रह रखने पर भी बंध न हो। इसलिए सबसे पहले सम्पूर्ण परिग्रह को पूर्णत: त्याग देना चाहिए। इसके बाद तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्रदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसमें वे कहते हैं कि इस संबंध में जो कुछ कहा जा सकता था, वह सब कुछ कह दिया है। छन्द मूलतः इसप्रकार है तू (वसंततिलका ) वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्त मेतावतैव यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि । व्यामोहजालमतिदुस्तरमेव नूनं, निश्चेतनस्य वचसामतिविस्तरेऽपि ।।१४।। (दोहा) जोकहने के योग्य है कहा गया वह सब्ब | इतने से ही चेत लो अति से क्या है अब्ब ||१४|| जो कहने योग्य था; वह सब अशेषरूप से कह दिया गया है, इतने मात्र से ही कोई चेत जाय, समझ ले तो समझ ले और न समझे तो न समझे अब वाणी के अतिविस्तार से क्या लाभ है ? क्योंकि निश्चेतन (जड़वत्, नासमझ) के व्यामोह का जाल वास्तव में अति दुस्तर है। तात्पर्य यह है कि नासमझों को समझाना अत्यन्त कठिन है। यह छन्द अत्यंत मार्मिक है। आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की आत्मख्याति टीका में तो २७८ छन्द लिखे हैं; किन्तु प्रवचनसार की टीका में मात्र २२ छन्द ही लिखे हैं। उन्हीं में से एक महत्त्वपूर्ण छन्द यह भी है। इस कलश में आचार्यदेव कह रहे हैं कि जो समझाया जा सकता था; वह हमने समझा दिया। जिन्हें समझ में आना होगा, उन्हें इतने से ही समझ में आ जाएगा और जिन्हें समझ में नहीं आना है; उनके लिए कितना ही विस्तार क्यों न करें, कुछ होनेवाला नहीं है; अतएव अब हम इस चर्चा के विस्तार में जाने से विराम लेते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-९० ३. वही, पृष्ठ-९१ २. वही, पृष्ठ-९१ ४. वही, पृष्ठ-९२

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