Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 40
________________ गाथा २२० प्रवचनसार गाथा २२० विगत गाथा में बहिरंग और अंतरंग परिग्रह का निषेध किया गया है और अब इस गाथा में यह समझाते हैं कि बहिरंग परिग्रह का निषेध अंतरंग परिग्रह का ही निषेध है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र । णहिणिरवेक्खोचागोणहवदिभिक्खुस्स आसयविसुद्धी। अविसुद्ध य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिदो ।।२२०।। (हरिगीत ) यदि भिक्षु के निरपेक्ष न हो त्याग तो शुद्धि न हो। तो कर्मक्षय हो किसतरह अविशुद्ध भावों से कहो।।२२०॥ यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो भिक्षु के भाव की विशुद्धि नहीं होती और जो भाव से अविशुद्ध है, उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है ? इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया हैं "जिसप्रकारछिलकेकेसद्भाव में चावलों में पाई जानेवाली लालिमा रूप अशुद्धता को नहीं हटाया जा सकता; उसीप्रकार बहिरंग परिग्रह के सद्भाव में अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद का परिहार संभव नही है और अंतरंग छेद के सद्भाव में शुद्धोपयोग से प्राप्त होनेवाले केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इससे ऐसा कहा गया है कि अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद के निषेधरूप प्रयोजन को ध्यान में रखकर किया जानेवाला परिग्रह का निषेध एक प्रकार से अंतरंग छेद का ही निषेध है।" तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का तात्पर्य इसप्रकार दिया गया है ह्र "इससे यह कहा गया है कि जिसप्रकार बाह्य में छिलके का सद्भाव होने पर चावल के अन्दर की शुद्धि होना संभव नहीं है; उसीप्रकार बाह्य परिग्रह की इच्छा विद्यमान होने पर निर्मल आत्मा की अनुभूतिरूप शुद्धि होना संभव नहीं है और यदि विशिष्ट वैराग्यपूर्वक परिग्रह का त्याग होता है तो चित्त की शुद्धि भी होती है; परन्तु प्रसिद्धि, पूजा-प्रतिष्ठा के लाभ की दृष्टि से त्याग करने पर चित्त की शुद्धि नहीं होती।" कविवर वृन्दावनदासजी १ छन्द में ही इस गाथा के भाव को बड़ी सरलता से इसप्रकार स्पष्ट कर देते हैं ह्र (रूप सवैया ) अंतर चाहदाह परिहरकरि, जो न तजै परिगहपरसंग। सो मुनि को मन होय न निरमल, संजम शुद्ध करत वह भंग ।। मन विशुद्ध बिनु करम करें किमि, जे प्रसंगवश बंधे कुढंग । तारौं तिलतुष मित हु परिग्रह, तजहिं सरव मुनिवर सरवंग ।।१०३।। जो मुनिराज अंतर की चाह की दाह (जलन) को छोड़कर परपदार्थरूप परिग्रह का परित्याग नहीं करते; उन मुनिराजों का मन निर्मल नहीं होता और उनका शुद्ध संयम भंग हो जाता है। मन की विशुद्धि के बिना प्रसंगवश बंधे कुढंगे कर्म कैसे कट सकते हैं ? इसलिए सभी मुनिराज सम्पूर्ण परिग्रह का सर्वांग त्याग कर देते हैं और तिलतुषमात्र परिग्रह नहीं रखते। पण्डित देवीदासजी भी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं (सवैया तेईसा) जो मुनि बाहिज के तुस तुल्य, परिग्रह सौं अनुराग करै है। तौ तिन्हि को चित्तु होहि न सुद्ध, महा अति चंचलता सुधरै है।। निर्मल जो उपयोग स्वरूप सु, है परिनाम मलीन परै है। सो बसु कर्मनि कौं हनि कैं, पुनि क्यों भवसागर पार तरै है।।२९।। जो मुनिराज तिलतुषमात्र बाह्य परिग्रह से अनुराग करते हैं; उन मुनिराजों का चित्त शुद्ध नहीं होता, उनका मन अत्यन्त चंचल बना रहता है और उनका निर्मल उपयोगरूप परिणमन मलिनता को प्राप्त होता है। ऐसे मुनिराज आठ कर्मों का नाश करके भवसागर से पार कैसे हो सकते हैं? 'बाह्य परिग्रह परद्रव्य हैं और परद्रव्यों से आत्मा का कोई बिगाड़सुधार नहीं होता' ह्र यद्यपि यह बात परम सत्य है; तथापि मुनिराजों के जबतक तिलतुष मात्र भी बाह्य परिग्रह रहता है; तबतक वास्तविक मुनिदशा प्रगट ही नहीं होती; क्योंकि अन्तर में परिग्रह से एकत्व-ममत्व बिना बाह्य परिग्रह रहता ही नहीं है ह ऐसा नियम है। बाह्य परिग्रह की

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