Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 44
________________ प्रवचनसार अनुशीलन वहाँ सातवें में निर्विकल्प अनुभव में ठहरें, वह उत्सर्ग मार्ग है और छठवें का विकल्प उत्पन्न हुआ, वह अपवाद मार्ग है। छठवें गुणस्थान में शुभवृत्ति उठने पर उसे भी यहाँ सर्वथा शुद्धोपयोग रूप ही गिना है; क्योंकि छठवें गुणस्थान की दशा में विघ्न जैसी अशुद्धता नहीं है। वहाँ आहारादिक का विकल्प उठे तो आहारादिक लेते हैं; पर राग के पोषण के लिये नहीं; अपितु संयम का घात होकर अशुभ राग न आ जाये इस हेतु से आहारादिक लेते हैं। इसीलिये इस उपधि से संयम का छेद नहीं होता । ७८ छठवें गुणस्थान में शुभराग और मन का अवलंबन होने पर भी यहाँ उसे सर्वथा शुद्धोपयोग कहा है; क्योंकि छठवें गुणस्थान से वे मुनिराज नीचे नहीं गिरते । उनकी वह दशा टिकी रहती है। उसके पश्चात् वे पुनः सातवें में जाते हैं; इसलिये छठवें गुणस्थान को भी शुद्धोपयोग में ही गिना जाता है । छठवाँ गुणस्थान तो द्रव्य के आश्रय से ही टिका है; किन्तु मुनिराज को विकल्प उत्पन्न हो, तब उनकी क्या स्थिति है ? विकल्प की क्या मर्यादा है ? इसका यहाँ ज्ञान कराया है। चौथा - पाँचवा गुणस्थान भी द्रव्य के ही आश्रय से टिका है।" छठवें-सातवें गुणस्थानों में निरन्तर झूलनेवाले मुनिराज जब छठवें गुणस्थान में होते हैं, तब अपवादमार्गी हैं और जब सातवें या उससे ऊपर गुणस्थानों में होते हैं; तब उत्सर्गमार्गी हैं। उत्सर्गमार्ग में तो किसीप्रकार के परिग्रह (उपधि) का होना संभव ही नहीं है; किन्तु जब वे अपवादमार्ग में होते हैं तो दया का उपकरण पीछी, शुद्धि का उपकरण कमण्डलु और ज्ञान का उपकरण गुरुवचन (शास्त्र) उनके पास पाये जाते हैं; पर उनसे भी उनका एकत्व - ममत्व नहीं होता । यद्यपि उनके छठवें गुणस्थान में उपयोगरूप आत्मानुभूति नहीं है; तथापि मिथ्यात्व और तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्धपरिणति अवश्य है। इसकारण उनके पास पीछी, कमण्डलु और शास्त्र होने पर भी उनका मुनित्व खण्डित नहीं होता है। • १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ- १०५ २. वही, पृष्ठ- १०६ ३. वही, पृष्ठ १०७ प्रवचनसार गाथा २२३ विगत गाथा में अनिषिद्ध उपधि की चर्चा के उपरान्त अब इस गाथा में उसी अनिषिद्ध उपधि का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार हैह्र अप्पडिकुट्टं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं । मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं । । २२३ ।। ( हरिगीत ) मूर्छादि उत्पादन रहित चाहे जिसे न असंयमी । अत्यल्प हो ऐसी उपधि ही अनिंदित अनिषिद्ध है || २२३|| हे श्रमणो ! अनिंदित, असंयत जनों से अप्रार्थनीय और जो मूर्छा पैदा न करे ह्न ऐसी अल्प उपधि को ग्रहण करो । इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "जो उपधि बंध की सर्वथा असाधक होने से अनिंदित है, संयमीजनों को छोड़कर अन्य किसी के काम की न होने से असंयतजनों के द्वारा अप्रार्थनीय है और रागादिभावों के बिना धारण की जानेवाली होने से मूर्च्छादि की अनुत्पादक है; वह उपधि वस्तुतः अनिषिद्ध है, उपादेय है; किन्तु उक्त स्वरूप से विपरीत स्वरूपवाली उपधि अल्प भी उपादेय नहीं है। " आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति में इससे अधिक कुछ भी नहीं लिखते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी १ मनहरण कवित्त और २ दोहे ह्र इसप्रकार ३ छन्दों में और पंडित देवीदासजी १ इकतीसा सवैया में इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करते हैं। वैसे तो उक्त छन्दों में कोई विशेष बात नहीं है, फिर भी वृन्दावनदासजी अपने दोहों में यह स्पष्ट कर देते हैं कि वह उपधि पीछी, कमण्डलु और

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