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प्रवचनसार अनुशीलन
सर्वज्ञदेव ने मुनिवरों को शरीर को सजाने आदि का निषेध करने के लिये अप्रतिकर्मपने का ही उपदेश दिया है; इसलिये मुनिराजों को अन्य दूर क्षेत्रस्थ अनुपात्त परिग्रह का तो विचार करना भी योग्य नहीं है।
आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि सर्वज्ञ भगवान का ऐसा आशय हमें व्यक्त भासित होता है; क्योंकि यही अरहन्तों का आशय है।
इससे निश्चित होता है कि उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं ।
व्यवहार से शरीरादि परिग्रह है ह्र ऐसा जाना था, किन्तु उसे भी अपवाद में गिनकर परमार्थ से उसका भी निषेध किया है। तात्पर्य यह है कि परमनिर्ग्रन्थपना ही वस्तुधर्म है, अतः यही अवलंबन करने योग्य है। २"
इस गाथा में यह कहा गया है कि यद्यपि अपवादमार्ग में वर्तते मुनिराजों का भी मुनित्व खण्डित नहीं होता; तथापि उत्कृष्ट तो उत्सर्गमार्ग ही है।
आचार्यदेव कहते हैं कि जब अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय का विषय एक क्षेत्रावगाही शरीर भी उपधि है तो फिर उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय के विषय पीछी - कमण्डलु आदि या वस्त्रादि की तो बात ही क्या कहना ?
शरीर की स्थिति तो यह है कि उसे छोड़ा नहीं जा सकता; पर उसमें से अपनत्व तो तोड़ा जा सकता है, उसके प्रति होनेवाला राग तो छोड़ा जा सकता है, उसके साज शृंगार का भाव तो छोड़ा जा सकता है; यही कारण है कि आचार्यदेव उसका उदाहरण देकर अन्य परिग्रह का पूर्णत: निषेध कर रहे हैं।
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इसके बाद आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका में ११ गाथायें ऐसी प्राप्त होती हैं, जो आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं हैं।
उक्त गाथाओं में श्वेताम्बरमत मान्य स्त्री मुक्ति का निषेध किया गया है। पहली गाथा में शंका उपस्थित की गयी है, शेष गाथाओं में उसका समुचित समाधान प्रस्तुत कर अन्त में कैसा पुरुष दीक्षा के योग्य है यह बताकर प्रकरण को समाप्त कर दिया है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग - ५, पृष्ठ- १११
२. वही, पृष्ठ १११
गाथा २२४
शंका प्रस्तुत करनेवाली गाथा इसप्रकार है ह्र पेच्छदिण हि इह लोगं परं च समणिंददेसिदो धम्मो । धम्मम्हि तम्हि कम्हा वियप्पियं लिंगमित्थीणं ।। २० ।। ( हरिगीत )
लोक अर परलोक से निरपेक्ष है जब यह धरम |
पृथक् से तब क्यों कहा है नारियों के लिंग को ॥२०॥
श्रमणों में इन्द्र, जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताया गया धर्म जब इस लोक और पर लोक की अपेक्षा नहीं रखता; तब इस धर्म में महिलाओं के लिंग को भिन्न क्यों कहा गया है ?
यह तो आप जानते ही हैं कि अष्टपाहुड में तीन लिंगों की चर्चा की गई है। जिस गाथा में उक्त चर्चा प्राप्त होती है, वह गाथा इसप्रकार है ह्र एगं जिणस्स रूवं बिदियं उक्कट्ठसावयाणं तु । अवरट्ठियाण तइयं चत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि ।। ( हरिगीत )
एक जिनवर लिंग है उत्कृष्ट श्रावक दूसरा । और कोई चौथा है नहीं पर आर्यिका का तीसरा ॥ तात्पर्य यह है कि प्रथम तो नग्न दिगम्बर मुनिराजों का लिंग (वेष) है, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों (क्षुल्लक - ऐलक) का और तीसरा आर्यिका का। जैनदर्शन में ये तीन लिंग (वेष) स्वीकार किये गये हैं।
प्रथम वेषवाले पुरुष संत तो पूर्णतः नग्न रहते हैं, दूसरे वेष में उत्कृष्ट श्रावक क्षुल्लक तो एक लंगोटी और एक खण्ड वस्त्र रखते हैं तथा ऐलक मात्र लंगोटी ही रखते हैं। तीसरा वेष महिलाओं का है, जो आर्यिकायें कहलाती हैं और मात्र एक सफेद साड़ी पहनती हैं।
चूंकि श्वेताम्बर मान्यता में पुरुष साधु भी कपड़े पहनते हैं; अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि महिलाओं के लिए अलग वेष की बात क्यों कही गई ?
उक्त शंका का समाधान आगामी गाथाओं में किया गया है; जो मूलत: इसप्रकार हैं ह्र
१. अष्टपाहुड़: दर्शनपाहुड़, गाथा १८