Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ प्रवचनसार गाथा २२४ २२३वीं गाथा में यह कहा गया है कि अपवाद मार्ग में पीछी, कमण्डलु और पोथी की उपधि अनिषिद्ध है और अब यहाँ २२४वीं गाथा में यह कह रहे हैं कि वस्तुधर्म तो उत्सर्ग मार्ग ही है, अपवाद मार्ग नहीं । गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्न किं किंचण त्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध देहे वि । संग त्ति जिणवरिंदा अप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा ।। २२४ ।। ( हरिगीत ) जब देह भी है परिग्रह उसको सजाना उचित ना । तो किसतरह हो अन्य सब जिनदेव ने ऐसा कहा ||२२४|| जबकि जिनेन्द्र भगवान ने मुमुक्षु के लिए 'देह भी परिग्रह' ह्र ऐसा कहकर देह से भी अप्रतिकर्मपना कहा है; तब उनके अन्य परिग्रह तो कैसे हो सकता है ? आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ, श्रामण्यपर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं किया गया, ऐसे अत्यन्त नजदीकी शरीर में भी 'यह शरीर परद्रव्य होने से परिग्रह है, वस्तुत: यह अनुग्रह योग्य नहीं है, किन्तु उपेक्षा योग्य है' ह्र ऐसा कहकर उसका साज-श्रृंगार नहीं करने का उपदेश अरहंत भगवान के द्वारा दिया गया है; तब फिर यहाँ शुद्धात्मतत्त्वोपलब्धि संभावना के रसिक पुरुषों की दृष्टि में शेष अन्य अप्राप्त परिग्रह अनुग्रह के योग्य कैसे हो सकता है ? ऐसा आशय अरहतदेव का व्यक्त ही है। इससे निश्चित होता है कि उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं । यहाँ तात्पर्य यह है कि वस्तु धर्म होने से परम निर्ग्रन्थपना ही अवलम्बन योग्य है।" गाथा २२४ ८३ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका का ही अनुसरण करते हैं । इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए कविवर वृन्दावनदासजी १ मनहरण कवित्त और पंडित देवीदासजी १ इकतीसा सवैया लिखते हैं। वृन्दावनदासजी द्वारा लिखित छन्द इसप्रकार है ह्न ( मनहरण ) अहो भव्यवृन्द जहां मोक्षाभिलाषी मुनि, देह हू को जानत परिग्रह प्रमाना है। ताहू सों ममत्तभाव त्यागि आचरन करै, ऐसे सरवज्ञ - वीतराग ने बखाना है ।। तहां अब कहो और कौन सो परिग्रह को, गहन करेंगे जहाँ त्याग ही को बाना है । ऐसो शुद्ध आतमीक परमधर्मरूप उत सर्ग मुनिमारग को फहरे निशाना है । । १२३ ।। हे भव्यजीवो ! सर्वज्ञ वीतरागी भगवान ने ऐसा कहा है कि जब मोक्षाभिलाषी मुनि देह को भी परिग्रह मानते हैं; उससे भी ममत्वभाव को त्यागकर आचरण करते हैं; तब कहो कि वे कौन-सा परिग्रह ग्रहण करेंगे; क्योंकि उनके तो त्याग का ही वेष है। वृन्दावन कवि कहते हैं कि जगत में ऐसे शुद्धात्मीक परमधर्म रूप उत्सर्ग मुनिमार्ग का झंडा फहर रहा है। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ शरीर को परिग्रह कहकर उसके प्रति होनेवाले ममत्व परिणाम को भी छोड़ने के लिये कहा गया है तो फिर वस्त्रादि का परिग्रह मुनिराज को कैसे हो सकता है ? आचार्य कुन्दकुन्ददेव भगवान की साक्षीपूर्वक कहते हैं कि जिनवरेन्द्रों मोक्षाभिलाषी के 'देह परिग्रह है' ऐसा कहकर देह में भी अप्रतिकर्मपना (संस्काररहित पना) उपदेशा है, तब उनका यह स्पष्ट आशय है कि उस जीव के ( मुनिराजों के) अन्य परिग्रह कैसे हो सकता है ?" १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ ११० १११

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129