Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 42
________________ ७४ प्रवचनसार अनुशीलन स्पष्ट करते हैं। वृन्दावनदासजी के कतिपय दोहे इसप्रकार हैं ह्र (दोहा) परिग्रह होते होत धुव, ममता और आरंभ। सो घातत सुविशुद्धमय, जो मुनिपद परवंभ ।। १०६ ।। तातैं तिलतुष परिमित हु, तजी परिग्रह मूल । इहि जुत जानों सुमुनिपद, ज्यों अकाश में फूल ।। १०७ ।। तातैं शुद्धातम विषै, जो चाहो विश्राम । तो सब परिग्रहत्यागि मुनि, होहु लहौ शिवधाम ।। १०९ ।। परिग्रह के होने पर ममत्व और आरंभ निश्चितरूप से होते हैं। ये परमब्रह्म के आश्रय से होनेवाले सुविशुद्ध मुनिपद का घात करते हैं। इसलिए तिलतुषमात्र परिग्रह को छोड़ देना चाहिए; क्योंकि इनके होने पर मुनिपद आकाश के फूलों के समान असंभव है। इसलिए यदि शुद्धात्मा में विश्राम करना चाहते हो तो सम्पूर्ण परिग्रह को त्याग कर मुनिपद धारण करो और मुक्तिधाम को प्राप्त कर लो। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “जो बाह्य वस्त्रादि परिग्रह में मग्न हैं, उसे मुनिदशा के साधकपने का अभाव है ह्न ऐसा होने से उपधि के ऐकांतिक अन्तरंग छेद भी निश्चित होता है; क्योंकि परिग्रह की ममता है, इसलिये मुनिपना का निषेध है। " इस गाथा के कथन का अभिप्राय मात्र इतना ही है कि परद्रव्यों में आसक्त साधुओं में मूर्छा, आरंभ और असंयम होता ही है। अतः वे आत्मा साधना कैसे कर सकते हैं? १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ १०२ आत्मानुभवी आत्माएँ भी जगत के क्रिया-कलापों में व्यस्त रहते दिखाई | देने पर भी आत्म-विस्मृत नहीं होतीं। उनकी आत्म जागृति लब्धिरूप से सदा बनी रहती है। ह्र मैं कौन हूँ, पृष्ठ- १८ प्रवचनसार गाथा २२२ विगत गाथाओं में उत्सर्ग मार्ग की चर्चा करने के उपरान्त अब यहाँ किसी के कहीं कभी किसीप्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भी है। ऐसे अपवाद मार्ग का उपदेश करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र छेदो जेण ण बिज्जदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स । समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ।। २२२।। ( हरिगीत ) छेद न हो जिसतरह आहार लेवे उसतरह । हो विसर्जन नीहार का भी क्षेत्र काल विचार कर ॥ २२२॥ आहार- नीहारादिक के ग्रहण- विसर्जन में जिस उपधि का सेवन होता है, उससे सेवन करनेवाले को छेद नहीं होता; इसलिए हे श्रमणो! उक्त उपधियुक्त क्षेत्र - काल को जानकर इस लोक में भले प्रवर्तो अर्थात् प्रवर्तन करो तो कोई हानि नहीं । आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “आत्मद्रव्य के द्वितीय, पुद्गल का अभाव होने से समस्त ही उपधि निषिद्ध है ह्न यह उत्सर्ग मार्ग ( सामान्य नियम) है और विशिष्ट काल-क्षेत्र के वश को उपधि अनिषिद्ध है ह्न यह अपवादमार्ग है। जब कोई श्रमण सर्व उपधि के निषेध का आश्रय लेकर परमोपेक्षा संयम को प्राप्त करने का इच्छुक होने पर भी विशिष्ट काल-क्षेत्र के वश हीन शक्तिवाला होने से उसे प्राप्त करने में असमर्थ होता है; तब उसमें अपकर्षण (अपवाद) करके अनुत्कृष्ट संयम प्राप्त करता हुआ उसकी बहिरंग साधन मात्र उपधि का आश्रय करता है । इसप्रकार वह उपधि उपधिपने के कारण छेदरूप नहीं है; अपितु छेद के निषेधरूप ही है। अशुद्धयोग बिना नहीं होती, वह छेद है; किन्तु यह तो श्रामण्यपर्याय की सहकारीकारणभूत शरीर की वृत्ति के हेतुभूत आहार

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