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प्रवचनसार अनुशीलन समस्त परिग्रह छोड़ना योग्य है; क्योंकि परिग्रह अंतरंग छेद के बिना नहीं होता।"
तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य जयसेन भी इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं।
उक्त गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी २ मनहरण छन्दों में और पंडित देवीदासजी १ छप्पय में स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं। पंडित देवीदासजी के छप्पय में तो बात पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाई है; किन्तु वृन्दावनदासजी के छन्दों में बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई है।
कविवर वृन्दावनदासजी के वे छन्द इसप्रकार हैं ह्न ( मनहरण ) कायक्रियामाहिं जीवघात होत कर्मबंध,
होहु वा न होहु यहां अनेकांत पच्छ है । पै परिग्रहसों धुवरूप कर्मबंध बंधै,
यह तो अबाधपच्छ निहचै विलच्छ है ।। जातैं अनुराग विना याको न गहन होत,
याहीसेती भंग होत संजम को कच्छ है । ताह तैं प्रथम महामुनि सब त्यागैं संग,
पावैं तब उभैविधि संजम जो स्वच्छ है ।। १०१ ।। काय की हलन-चलन क्रिया से सूक्ष्म जीवों का घात होने पर भी कर्मों का बंध होगा ही ह्र ऐसा नियम नहीं है; अपितु कर्मबंध होने न होने के संबंध में अनेकान्त है । तात्पर्य यह है कि उपयोग अशुद्ध होने पर बंध होता है और नहीं होने पर नहीं होता है; किन्तु परिग्रह के संबंध में ऐसी बात नहीं है। परिग्रह के होने पर तो बंध होता ही है; क्योंकि अनुराग के बिना परिग्रह का ग्रहण होता ही नहीं है और इससे संयम का भंग हो जाता है; इसीलिए मुनिराज सबसे पहले परिग्रह का पूर्णत: त्याग कर देते हैं और उससे संयम के बहिरंग और अंतरंग दोनों पक्ष स्वच्छ हो जाते हैं।
गाथा २१९
( मनहरण )
अंतर के भाव बिना काय ही की क्रियाकरि,
संग को गहन नाहिं काहूं भाँति होत है । अरहंत आदि ने प्रथम याको त्याग कीन्हों,
सोई मग मुनिनिकों चलिबो उदोत है ।। शुद्धभाव घातो भावै रातो परिग्रहमाहिं,
शुद्धसंजम को घात मूल खोत है । ऐसो निरधार तुम थोरे ही में जानो वृन्द,
याके धारे जागै नाहिं शुद्ध ज्ञानजोत है ।। १०२ ।। अंतरंग भावों के बिना मात्र शरीर की क्रिया से परिग्रह का ग्रहण
किसी भी स्थिति में नहीं होता। इसलिए अरहंतादि ने सबसे पहले परिग्रह का त्याग किया और यही रास्ता मुनियों को बताया। जो मुनिराज परिग्रह में रत होते हैं, उनके शुद्धभावों का घात हो जाता है; क्योंकि बहिरंग और अंतरंग दोनों प्रकार के परिग्रह शुद्ध संयम के घात करने के मूल स्रोत हैं।
वृन्दावन कवि कहते हैं कि इस बात को तुम थोड़े कहने में ही समझ लो; क्योंकि परिग्रह का धारण करने पर ज्ञान की ज्योति जागृत नहीं होती अर्थात् केवलज्ञान नहीं होता ।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“शरीर की किसी भी चेष्टा से पर प्राणियों का घात हो, वहाँ मुनिराज को प्रमादभाव नहीं हो तो कोई दोष नहीं लगता; किन्तु तीव्र राग होने से तत्संबंधी दोष अवश्य है।
इससे विपरीत वस्त्रादि परिग्रह की उपस्थिति में ऐसा नहीं है । वस्त्रादि परिग्रह की उपस्थिति ही अन्तर में विद्यमान ममत्वभाव को स्पष्ट करती है। इससे जीव को बंध होता ही है, इसलिये योगियों ने समस्त परिग्रह को छोड़ दिया है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ ८९