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प्रवचनसार अनुशीलन छेद का आयतन है; क्योंकि उसके अभाव में ही अछिन्न श्रामण्य होता है । इसलिए आत्मा में ही आत्मा को स्थापित करके उसमें सदा ही बसते हुए अथवा गुरुओं के सहवास में बसते हुए अथवा गुरुओं के वास से भिन्न वास में बसते हुए, परद्रव्यों के प्रतिबंध ( प्रतिबद्धता) को छोड़ते हुए, हे श्रमण ! सदा श्रामण्य में छेदविहीन होकर वर्तन करो।
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एक स्वद्रव्य - प्रतिबंध ही उपयोग का परिमार्जन करनेवाला होने से परिमार्जित उपयोगरूप श्रामण्य को परिपूर्णता का आयतन है। उसके सद्भाव में ही परिपूर्ण श्रामण्य होता है। इसलिए ज्ञान में और दर्शनादिक सदा प्रतिबद्ध रहकर मूलगुणों में सावधानीपूर्वक विचरण करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि ज्ञानदर्शनस्वभावी शुद्धात्मद्रव्य में प्रतिबद्ध होकर शुद्ध अस्तित्वमात्र से वर्तन करना चाहिए।"
यद्यपि इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका का ही अनुसरण करते हैं; तथापि ‘तथाहि' कहकर कुछ विशेष स्पष्टीकरण करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
"मुनिराज, गुरु के पास जितने शास्त्र हों, उन्हें पढ़कर; गुरु से आज्ञा लेकर समानशीलवाले तपस्वियों के साथ, भेदाभेदरत्नत्रय की भावना से, भव्यों को आनन्द उत्पन्न करते हुए, तप- श्रुत-सत्व - एकत्व - सन्तोषरूप पाँच भावनाओं को भाते हुए; तीर्थंकर परमदेव, गणधरदेव आदि महापुरुषों के चरित्रों को स्वयं भाते हुए और दूसरों को बताते हुए विहार करते हैं।" कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं के भाव को २ मनहरण कवित्तों इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं ह्न
( मनहरण )
जाके उर आतमीक ज्ञानजोति जगी वृन्द,
आप ही में आपको निहारै तिहूँपन मैं । संजम के घात की न बात जाके बाकी रहै,
समतासुभाव जाको आवै न कथन में ।।
गाथा २१३-२१४
सदाकाल सर्व परदर्वनि को त्याग रहे,
मुनिपद माहिं जो अखंड धीर मन में । ऐसो जब होय तब चाहे गुरु पास रहै,
चाहै सो विहार करै जथाजोग वन में॥ ८४ ॥ वृन्दावन कवि कहते हैं कि जिन मुनिराज के हृदय में आत्मा संबंधी ज्ञानज्योति जागृत हो गई है; वे मुनिराज बालपन, जवानी और वृद्धपन इन तीनों में सदा अपने को अपने में ही देखते हैं, जिनके जीवन में संयम का घात होता ही नहीं है और जिनके स्वभाव में अकथनीय समताभाव रहता है, जो सदा ही परद्रव्यों के प्रति ममत्व को त्यागे रहते हैं; वे धीरवीर मुनिराज मुनिपद में अखण्डरूप से वर्तन करते हैं।
ऐसे मुनिराज चाहे गुरु के पास रहें, चाहे जहाँ वन में यथायोग्य विहार करें, उन्हें कोई प्रतिबंध नहीं है।
( मनहरण )
सम्यकदरशनादि
अनंतगुननिजुत,
ज्ञान के सरूप जो विराजै निज आतमा । ताही में सदैव परिवर्तत रहत और,
मूलगुन में है सावधान बात-बातमा ।। सोई मुनि मुनिपदवी में परिपूरन है,
अंतरंग बहिरंग दोनों भेद भांतमा । वही अविकारी परदर्व परिहारी वृन्द,
वरै शिवनारी जो विशुद्ध सिद्ध आतमा ।। ८५ ।। जो मुनिराज सम्यग्दर्शनादि अनंत गुणों से युक्त हैं और सदा निजात्मा के ज्ञानस्वभाव में विराजमान हैं; उसी में निरन्तर रहते हैं और बात-बात में (निरंतर) मूलगुणों में सावधान रहते हैं। वे मुनिराज ही अंतरंग और बहिरंग ह्र दोनों दृष्टि से मुनिपद में परिपूर्ण हैं। परद्रव्यों के प्रतिबंध से रहित वे अविकारी मुनिराज ही विशुद्ध जातिवाली शिवनारी का वरण करते हैं।