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प्रवचनसार अनुशीलन पण्डित देवीदासजी १ सवैया तेइसा और १ छप्पय ह्र इसप्रकार २ छन्दों में इन गाथाओं के भाव को इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“शुद्ध उपादान की ओर से मुनिराज चिदानन्द आत्मस्वरूप के सन्मुख रहते हैं और निमित्त की ओर से श्रीगुरु के समीप उनके चरणों में अथवा गुरु की आज्ञा लेकर एकांत में बसते हैं; किन्तु स्वच्छन्दी नहीं होते । चिदानन्द स्वरूप की रमणता में उन्हें कोई प्रतिबंध (बाधा) नहीं है।'
जिनके अछेद शुद्धोपयोग हो और जिनकी चैतन्यद्रव्य में लीनता बनी रहे; वे अच्छिन्न श्रमण कहलाते है; अत: मुनिराज अपने आत्मा में आत्मा को स्थापित करके उसमें ही लीन रहते हैं।
यहाँ आत्मा को व्रतादि या रागादि में स्थापित करने की बात नहीं है; क्योंकि ये तो विकार हैं। उपादान की दृष्टि से एकमात्र निजशुद्धात्मा में ही रमने की बात है और निमित्त की अपेक्षा श्रीगुरु को गुरुरूप में स्थापित करके उनके समीप अथवा गुरु की आज्ञानुसार अन्य स्थान पर भी रहने की बात है, जिससे परद्रव्य का प्रतिबंध (प्रतिबद्धता) नहीं रहे और शुद्धोपयोग भी अछेद वर्तता रहे।
इसप्रकार मुनिराज को परद्रव्यों के प्रतिबंध (प्रतिबद्धता) का अभाव है।
स्वद्रव्य में लीनतारूप शुद्धोपयोग ही एक आत्मा को शुद्ध करनेवाला है। शुद्धोपयोग के अतिरिक्त किसी निमित्तरूप प्रतिबंध अथवा शुभराग से आत्मा को शुद्धता की प्राप्ति नहीं होती। शुद्धोपयोगरूप साधुपने की परिपूर्णता का स्थान एकमात्र स्वद्रव्य में लीनता ही है, किन्तु जिसे स्वद्रव्य का भान भी नहीं है, उसे मुनिपना कैसे हो सकता है ? १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-६३ २. वही, पृष्ठ-६४
____३. वही, पृष्ठ-६६
गाथा २१३-२१४ ___ यद्यपि मुनिराज को २८ मूलगुणों के पालनरूप विकल्प होता है; किन्तु उनका मूल उद्देश्य तो शुद्धोपयोग टिकायें रखना है।"
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि मुनिराज चाहे गुरुओं के साथ रहे या उनकी आज्ञा से अकेले विहार करें; किन्तु उन्हें अपने में तो सदा रहना ही चाहिए।
तात्पर्य यह है कि परपदार्थों से किसीप्रकार का राग या संसर्ग उनके मुनित्व को खण्डित करनेवाला है; अत: उन्हें उनसे पूरी तरह दूर ही रहना चाहिए। ___ मूलत: तो मुनिराज शुद्धोपयोगी ही होते हैं; किन्तु प्रमत्तविरत नामक छठवें गुणस्थान में आने पर वे शुभोपयोग में आ जाते हैं; अत: उनके जीवन में शुभराग भी देखने में आता है; किन्तु वह शुभराग २८ मूलगुणों को सावधानीपूर्वक पालने, जिनागम का गहराई से अध्ययन करने-कराने, उपदेश देने, तत्त्वचर्चा करने तक ही सीमित रहता है और रहना चाहिए; अन्यथा श्रामण्य खण्डित हुए बिना नहीं रहेगा।
जिनमंदिर निर्माण और पंचकल्याणक महोत्सव आदि गृहस्थोचित कार्यों में मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से अपने चित्त को रंजायमान करना श्रामण्य को खंडित करनेवाले कार्य हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-६६
सच्चा सुख तो इच्छाओं के अभाव में है, इच्छाओं की पूर्ति में नहीं; क्योंकि हम इच्छाओं की कमी (आंशिक अभाव) में आकुलता की कमी प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। अत: यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि इच्छाओं के पूर्ण अभाव में पूर्ण सुख होगा ही। यदि यह कहा जाय कि इच्छा पूर्ण होने पर समाप्त हो जाती है, अत: उसे सुख कहना चाहिए, यह कहना भी गलत है; क्योंकि इच्छाओं के अभाव का अर्थ इच्छाओं की पूर्ति होना नहीं, वरन् इच्छाओं का उत्पन्न ही नहीं होना है। हू मैं कौन हूँ, पृष्ठ-३