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गाथा २१७
प्रवचनसार गाथा २१७ विगत गाथाओं में सभी प्रकार के छेदों का निषेध करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह कहते हैं कि छेद अंतरंग और बहिरंग के भेद से दो प्रकार का होता है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र मरदुव जियदुवजीवोअयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।।२१७।।
(हरिगीत) प्राणी मरें या ना मरें हिंसा अयत्नाचार से।
तब बंध होता है नहीं जब रहें यत्नाचार से||२१७|| जीव मरे या जिये, किन्तु असावधानीपूर्वक आचरण करनेवाले के हिंसा निश्चित ही है; क्योंकि सावधानी पूर्वक समितियों के पालन करनेवालों को बहिरंग द्रव्यहिंसा मात्र से बंध नहीं होता।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"अशुद्धोपयोग अंतरंग छेद है और परप्राणों का व्यपरोपण (विच्छेद) बहिरंग छेद है। इनमें अंतरंग छेद ही बलवान है, बहिरंग नहीं; क्योंकि परप्राणों का छेद हो या न हो, अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होनेवाले असावधानीपूर्वक आचरण से जानने में आनेवाले अशुद्धोपयोग का सद्भाव जिसके पाया जाता है, उसके हिंसा का सद्भाव सुनिश्चित है।
अशुद्धोपयोग के बिना होनेवाले सावधानीपूर्वक आचरण से प्रसिद्ध होनेवाले अशुद्धोपयोग के अभाववाले मुनिराजों को परप्राणों के विच्छेद के सद्भाव में भी बंध का अभाव होने से हिंसा का अभाव सुनिश्चित है।
बहिरंग छेद से अंतरंग छेद ही बलवान हैह्र ऐसा होने पर भी बहिरंग छेद
अंतरंग छेद का आयतन मात्र है। इसलिए उसे स्वीकार तो करना ही चाहिए।"
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का भाव स्पष्ट करने के लिए तत्त्वप्रदीपिका का अनुसरण करते हैं; तथापि 'अयमत्रार्थः' कहकर निश्चय और व्यवहार हिंसा के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं; जो इसप्रकार है तू
“अपने आत्मा में लीनतारूप निश्चयप्राणों के विनाश की कारणभूत रागादि परिणति निश्चय हिंसा है और रागादि की उत्पत्ति से बाह्य में निमित्तभूत परजीवों का घात व्यवहार हिंसा है। इसप्रकार हिंसा दो प्रकार की होती है। किन्तु विशेष यह है कि बाह्यहिंसा हो या न हो स्वस्थभावना (आत्मलीनता) रूप निश्चय प्राणों का घात होने पर निश्चयहिंसा नियम से होती है; इसलिए निश्चय हिंसा ही मुख्य है।" ___ इस गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी १ छप्पय और ६ दोहे ह्र इसप्रकार ७ छन्दों में और पण्डित देवीदासजी १ सवैया इकतीसा में प्रस्तुत करते हैं; उनमें से दोहे इसप्रकार हैं ह्र
(दोहा) हिंसा दोय प्रकार है, अंतर बाहिजरूप। ताको भेद लिखों यहाँ, ज्यों भाषी जिनभूप ।।१४।। अंतरभाव अशुद्धसुकरि, जो मुनि वरतत होय। घातत शुद्धसुभाव निज, प्रबल सुहिंसकसोय ।।१५।। अरु बाहिज बिनु जतन जो, करै आचरन आप। तहँ पर जिय को घात हो, वा मति होहु कदाप ।।१६।। अंतर निजहिंसा करै, अजतनचारी धार । ताको मुनिपद भंग है, यह निहचै निरधार ।।९७।। जे मुनि शुद्धपयोगजुत ज्ञानप्रान निजरूप। ताकीरच्छा करत नित, निरखत रहत सुरूप ।।९८।। तिनकीकायक्रियासकल,समितिसहित नित जान। तहँ पर कहूँ मरै तऊ, करम न बँधै निदान ।।९९।।