Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ ३८ प्रवचनसार अनुशीलन नहीं जानेंगे, तब तक मिथ्यात्वभाव टलनेवाला नहीं है और मिथ्यात्व के अभाव बिना सच्चा साधुपना संभव नहीं है। बाह्य में परिग्रह और अन्तर में तीन कषाय चौकड़ी का अभाव किए बिना मुनिदशा नहीं होती। भले ही आत्मज्ञान हो, मति श्रुतअवधि तीनों ज्ञान हो; किन्तु अन्तर्बाह्य वीतरागदशा न हो तो मुनिपना नहीं हो सकता । जिसे मुनिदशा हुई है, उसे समस्त सावद्ययोग का प्रत्याख्यान हो गया है। अन्तर में सातवें गुणस्थान के समय जो निर्विकल्पदशा प्रगट हुई, उसका नाम सामायिक है। आत्मध्यान में लीन होते ही मुनि के प्रथम सातवाँ गुणस्थान होता है, पश्चात् छठवाँ गुणस्थान आता है। निर्विकल्पदशा में महाव्रतरूप शुभविकल्प भी नहीं है। छठवें गुणस्थान में आने के पश्चात् पंच महाव्रतरूप शुभवृत्ति उत्पन्न होती है। ' छठवें गुणस्थान में२८ मूलगुणरूप शुभवृत्ति होती है । अन्तर में वीतराग भाव के बिना बाह्य नग्नदशा हो, वह कोई मुनिदशा नहीं है, वह तो द्रव्यलिंग है। २८ मूलगुण निर्विकल्प सामायिक के भेद हैं। अभेद में निर्विकल्प अनुभव रूप एक ही मूलगुण है और विकल्प उत्पन्न होते ही वे २८ प्रकार के हैं। सातवें गुणस्थान में निर्विकल्प सामायिक में स्थिरता के समय इन २८ मूलगुणों के भेद का विकल्प नहीं रहता, किन्तु जब निर्विकल्पदशा में स्थिर नहीं रहा जाता, तब उस जीव को २८ मूलगुणरूप शुभविकल्प उत्पन्न होते हैं, उस समय भी अकषायरूप वीतरागभाव विद्यमान रहता है। * सातवें गुणस्थान में निर्विकल्प सामायिक सुवर्ण है और छठवें गुणस्थान में उत्पन्न २८ मूलगुणरूप शुभविकल्प सुवर्ण की पर्यायें हैं; क्योंकि शुभविकल्प उत्पन्न होने पर भी अन्तर में अकषायभाव विद्यमान ही है। वीतरागभाव टिका रहता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग - ५, पृष्ठ-५२ ३. वही, पृष्ठ-५३ २. वही, पृष्ठ-५२-५३ ४. वही, पृष्ठ-५४ ५. वही, पृष्ठ-५४ गाथा २०८-२०९ २८ जब निर्विकल्प नहीं रहा जा सकता, तब छठवें गुणस्थान मूलगुणरूप शुभराग उत्पन्न होता है। वहाँ शुभविकल्प उत्पन्न ही न हो, ऐसा हठ नहीं है । इस अपेक्षा से २८ मूलगुणों को सामायिक और संयम के भेद कहा गया हैं । ३९ इसप्रकार छठवें गुणस्थान में रहते हुए शुभराग उत्पन्न होता है, उसका नाम छेदोपस्थापना है। जिनके निर्विकल्प संयम में छेद होकर २८ मूलगुण के पालनरूप वृत्ति उठती है, उन्हीं मुनिराज को छेदोपस्थापक कहा जाता है।" विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब मुनिराज अप्रमत्त दशा से प्रमत्त दशा में आते हैं; तब यद्यपि उनके शुद्धोपयोग नहीं है; तथापि मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्ध परिणति तो विद्यमान ही है। इसकारण वे संयमी ही हैं। यह एक प्रश्न हो सकता है कि अप्रमत्त से प्रमत्त में जाना छेदोपस्थापना चारित्र है या प्रमत्त से अप्रमत्त में आना ? इसका उत्तर यह है कि यह छेदोपस्थापना चारित्र ६वें गुणस्थान से ९ गुणस्थान तक होता है; अतः इसमें दोनों ही स्थितियाँ आ जाती हैं। अप्रमत्त से प्रमत्त में जाना छेद है और प्रमत्त से अप्रमत्त में आना उपस्थापन है ह्र इसप्रकार दोनों स्थितियाँ मिलकर छेदोपस्थापन है। एक प्रश्न यह भी हो सकता है कि हमने तो सुना है कि मूलगुणों में दोष लगना छेद है और उसका परिमार्जन करना उपस्थापना है ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि वह व्यवहार छेदोपस्थापना है और यहाँ जो बात कही जा रही है, वह निश्चय छेदोपस्थापना की है। इस संबंध में विशेष स्पष्टीकरण अगली गाथाओं में किया जायेगा । • १. दिव्यध्वनिसार भाग - ५, पृष्ठ-५४ द्रव्य यदि त्रिकाल सत् है तो पर्याय भी स्वकाल की सत् है अर्था सती है। ह्न क्रमबद्धपर्याय, पृष्ठ- २८

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