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प्रवचनसार अनुशीलन आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इस प्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र __ "छेद दो प्रकार का है हू (१) निर्विकल्प संयम में २८ मूलगुणों का विकल्प उठना छेद है (२) छठवें गुणस्थान में २८ मूलगुणों के पालन में कोई अतिचार लगे तो वह भी छेद है।
निर्विकल्प सामायिक में न रहकर कोई मुनिराज छठवें गुणस्थान में आते हैं तो उन्हें अन्य मुनि कहते हैं कि हे मुनि ! अन्तर निर्विकल्प अप्रमत्त भाव में झूलना ही वास्तव में मुनिदशा है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी मुनि का भाव नहीं है और ऐसे उपदेशपूर्वक वे मुनिराज पुन: निर्विकल्प हो जाते हैं, तब वे दूसरे मुनिराज छेदोपस्थापक कहलाते हैं तथा २८ मूलगुणों के पालन में कोई अतिचार लगे, तब विधिपूर्वक प्रायश्चित्त कराके अतिचार दूर करावे, वे मुनिराज भी छेदोपस्थापक कहलाते हैं।'
छेदोपस्थापक के भी दो अर्थ हैं ह्र (१) जो छेद (भेद) के प्रति उपस्थापक है अर्थात् जो २८ मूलगुणरूप भेद को समझाकर उसमें स्थापित करता है, वह छेदोपस्थापक है, तथा (२) जो छेद के होने पर उपस्थापक है अर्थात् संयम के छिन्न (खण्डित) होने पर उसमें पुनः स्थापित करता है, वह भी छेदोपस्थापक है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि दीक्षार्थी के गुरु दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे दीक्षाचार्य, जो उनकी पूरी जाँच-परख करके उन्हें दीक्षा देते हैं और दूसरे वे निर्यापक श्रमण, जो उन्हें २८ मूलगुणों का स्वरूप अच्छी तरह समझाकर उन्हें निर्दोष रीति से पालन करने में मार्गदर्शन करते हैं और दोष लगने पर प्रायश्चित्त विधान से उन्हें पुनर्स्थापित करते हैं।
दीक्षा तो एक बार का काम है; अत: एक आचार्य अनेक लोगों को दीक्षा दे सकता है; पर अधिक संख्या होने पर उन्हें निरंतर संभालनेवाले निर्यापक तो अनेक चाहिए।
अत: दीक्षाचार्य एक और निर्यापक अनेक हो सकते हैं। .
प्रवचनसार गाथा २११-२१२ विगत गाथा में गुरु के रूप में दो प्रकार के गुरुओं की चर्चा की है ह्र एक दीक्षाचार्य दीक्षागुरु और दूसरे निर्यापक श्रमण शिक्षागुरु; अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि जब संयम में छेद होता है तो उसका निराकरण किस विधि से होता है? गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं ह्र ।
पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेट्टम्हि । जायदिजदि तस्स पुणो आलोयणपुब्विया किरिया।।२११।। छेदुवजुत्तो समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि। आसेजालोचित्ता उवदिटुं तेण कायव्वं ।।२१२।।
(हरिगीत) यदि प्रयत्नपूर्वक रहें पर देहिक क्रिया में छेद हो। आलोचना द्वारा अरे उसका करें परिमार्जन ||२१|| किन्तु यदि यति छेद में उपयुक्त होकर भ्रष्ट हों।
तो योग्य गुरु के मार्गदर्शन में करें आलोचना ॥२१२।। यदि प्रथम प्रयत्नपूर्वक की जानेवाली कायचेष्टा में छेद होता है, दोष लगता है; तो आलोचनापूर्वक क्रिया करनी चाहिये।
यदि श्रमण छेद (दोष) में उपयुक्त हुआ हो तो उसे जिनमत में व्यवहार कुशल श्रमण के पास जाकर अपने दोषों का निवेदन करके, वे जैसा उपदेश दें; वैसा करना चाहिए।
इन गाथाओं के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“संयम का छेद दो प्रकार का है ह्र बहिरंग और अन्तरंग । उसमें मात्र कायचेष्टा सम्बन्धी छेद बहिरंग छेद है और उपयोग सम्बन्धी छेद अन्तरंग छेद है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-५६
२. वही, पृष्ठ-५७