Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 18
________________ प्रवचनसार अनुशीलन देह खेह-खान के संवारनादि क्रियासेती, रहित विराजै जैसी आगम उकतु है ।।६६।। जिनागम में कथित यथाजातद्रव्यलिंग ऐसा होता है कि जहाँ परमाणुमात्र परिग्रह नहीं होता, सिर और दाढ़ी-मूछ के बाल स्वयं उखाड़ दिये जाते हैं, जिनवाणी के मंथन पूर्वक शुद्ध निर्ग्रन्थ (नग्न दिगम्बर) दशा ग्रहण की जाती है, जिसमें हिंसादि पाँच पाप रंचमात्र भी नहीं होते हैं, तीनों योगों को भी पूरी सावधानी पूर्वक निर्वाह किया जाता है, स्वभावतः अशुचि इस देह को संभारने (शृंगार करने) की क्रिया भी नहीं होती है। परदर्वमाहिं मोह ममतादि भावनि को, जहां न अरंभ कहूँ निरारम्भ तैसो है। शुद्ध उपयोग वृन्द चेतना सुभावजुत, तीनों जोग तसो तहां चाहियत जसो है ।। परदर्व के अधीन वर्त्तत कदापि नाहिं, आतमीक ज्ञान को विधानवान वैसो है। मोक्षसुखकारन भवोदधि उधारन को, ___अंतरंगभावरूप जैनलिंग ऐसो है।६७।। जहाँ परद्रव्यों में मोह-ममतादि भावों का और सभी प्रकार के आरंभ का अभाव होता है; चेतना स्वभाव में युक्त शुद्धोपयोग और जिनागमानुसार तीनों योगों की शुद्धि होती है; आत्मीक ज्ञान का विधान ऐसा है कि परद्रव्यों की आधीनता कदापि नहीं होती; भवोदधि से पार उतारनेवाला और मोक्षसुख का कारणरूप जिनागमकथित भावलिंग ऐसा होता है। पण्डित देवीदासजी भी इसीप्रकार दो छन्दों में इन गाथाओं का भाव प्रस्तुत कर देते हैं। पिष्टपेषण के भय उन्हें यहाँ देना उपयुक्त नहीं है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र गाथा २०५-२०६ “यथाजात अर्थात् सहजरूप, ज्ञायकपना । अनादि से प्रत्येक जीव यथाजातस्वरूपी ही हैकिन्तु अब वर्तमान में श्रमणों ने निर्मल पर्याय प्रगट करके यथाजातरूप को धारण किया हैं अर्थात् यथाजातरूपधर हुए हैं।' यथाजातरूपधरपना यह वीतरागी सहजदशा की अस्ति है और उसमें मोह-राग-द्वेषपने की नास्ति है। यहाँ श्रामण्यार्थी जीव ने हठपूर्वक किसी का त्याग नहीं किया है; अपितु सहज-स्वभाव से जन्मी वीतरागी दशा उसे प्राप्त हुई है। अन्दर में सहज वीतरागदशारूप यथाजातरूपधरपना हो तो मोहराग-द्वेषादि का अभाव होता ही है और जहाँ मिथ्यात्व राग-द्वेषादि का अभाव हुआ, वहाँ वनादि भी नहीं होते; क्योंकि मोहादि के सद्भाव में ही वस्राभूषण देखने में आते हैं।' इसप्रकार रागादि के अभाव में मुनियों की बाह्य दशा को स्पष्ट करनेवाले निम्न पाँच बोलों को बताया गया है ह्र १. जन्मसमय के रूपसमान नग्नरूप होता है। २. मस्तक और दाढ़ी के केशों का लोंच करते हैं। ३. शुद्धपना होने से वस्रादि अथवा धनादि परिग्रह उनके नहीं है। ४. हिंसादि से रहितपना होने से रुपये-पैसे का लेन-देन नहीं हैं। ५. अप्रतिकर्म अर्थात् शरीर का शृंगार आदि नहीं करते। इसप्रकार भावलिंगी मुनियों का बाह्यलिंग है। आरंभादि से रहित ऐसी मुनिदशा के बाह्य में विगत पाँच बातों से निवृत्ति है और अन्तर में राग-द्वेषादि आरम्भ से निवृत्ति है। इसप्रकार उपयोग की शुद्धि वर्तती है। उपयोग स्व में ही लगा होने से उसमें परद्रव्य की सापेक्षता का अभाव है। यहाँ ध्यान करने हेतु अन्तर-गुफा में जाने की बात कही है। बाह्य पत्थर की गिरि-गुफा में तो सिंहादि पशु-पक्षी भी रहते हैं; परन्तु १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-४९ २. वही, पृष्ठ-४२ ३. वही, पृष्ठ-४२ ४. वही, पृष्ठ-४२-४३ ५. वही, पृष्ठ-४३

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