Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3 Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust DelhiPage 17
________________ ( १२ ) यह बौद्ध की उपर्युक्त मान्यता प्रसमीचीन है। संबंध प्रत्यक्ष से दिखाई देता है, अनेक तन्तुनों के ताने बाने रूप संबंध से वस्त्र निर्माण होता है। प्रत्येक परमाणु सर्वथा असंबद्ध है एक का अन्य से संबंध नहीं है तो रस्सी दंड बांस आदि आकर्षण असंभव है, जब रस्सी के प्रत्येक तंतु पृथक हैं तो उसका एक छोर पकड़ते ही संपूर्ण रस्सी किसप्रकार खिंच जाती है ? रस्सी से बंधी बालटी कूप से पानी किस प्रकार निकाल सकती है ? क्योंकि रस्सी से प्रत्येक करण पृथक् पृथक् अवस्था में स्थित है । परमाणु से परमाणु का संबंध दोनों प्रकार से संभव है एक देश से संबंध होने से ही तो बड़े स्कंध की निष्पत्ति होती है अन्यथा मेरु और सरसों में अंतर ही नहीं रह पायेगा । कभी सर्व देश से संबंध भी होता है, श्राकाश के एक प्रदेश में अनेक परमाणुओं वाले स्कंध का अवस्थान इसी से बन जाता है । एक देश से संबंध माने तो परमाणु सांश हो जायगा ऐसा कहना अभीष्ट ही है क्योंकि परमाणु को केवल इसलिये निरंश कहते हैं कि उसका विभाग नहीं होता, किन्तु स्वयं में उसके छह पहलू या कोण माने ही हैं । संबंध का लक्षण यही है कि "विश्लिष्टरूपता परित्यागेन संश्लिष्टरूपतया परिणति संबंध : " अर्थात् विभिन्नपने का त्याग कर संश्लेषरूप परिणमन करना संबंध है, यह संबंध अनेक प्रकार का है—संयोग संबंध जैसे कु ंड में बेर, हाथ में कंकरण श्रादि, कोई सश्लेष संबंध रूप है, जैसे जीव और कर्म का संबंध । कोई एक क्षेत्रावगाह संबंध जैसे - दूध और पानी का संबंध है इसीप्रकार कार्य कारण आदि संबंध भी होते हैं । अन्वयो आत्म सिद्धि : मनुष्यादि दृश्यमान पर्यायों में और सुख दुःख का अनुभवनरूप अदृश्य पर्यायों में एक ही श्रात्मा श्रन्वयरूप से रहता है, बौद्ध मतानुसार आत्मा का निरन्वय विनाश अथवा प्रतिक्षरण अन्य अन्य आत्मा की उत्पत्ति स्वीकृत की जाय तो श्रात्मा में जो अनुसंधानरूप प्रत्यभिज्ञान होता है वह नहीं हो सकेगा । यदि प्रतिक्षण का श्रात्मा अन्य ग्रन्य है तो कृत प्ररणाश और प्रकृत अभ्यागम का प्रसंग होगा अर्थात् जो अच्छे बुरे कायिक वाचिक मानसिक कार्य किये श्रौर तदनुसार जो कर्म बंध हुआ वह सिद्ध नहीं होगा क्योंकि कार्य करने वाला अन्य है और बंधने वाला अन्य, इसीप्रकार जिसने नहीं किया ऐसे श्रागामी काल के श्रात्मा को उक्त कर्म बंध का फल भोगना होगा, क्योंकि करने वाला श्रात्मा नष्ट हो चुका है, अतः जैसे हरित पीत आदि अवस्था में एक प्राम्रफल परिवर्तित होकर अन्वय रूप से रहता है वैसे श्रात्मा सुख दुःखादि अवस्था में ग्रन्वय रूप से रहता है ऐसा सिद्ध होता है । अर्थ का सामान्य विशेषात्मकवाद : वैशेषिक पदार्थं सामान्य और विशेष धर्मों को सर्वथा पृथक् मानते हैं उनका कहना है कि सामान्य का प्रतिभास भिन्न है और विशेष का प्रतिभास भिन्न है प्रत! ये धर्म प्रत्यन्त भिन्न हैं । श्रवयव मोर अवयवी भी प्रत्यंत भिन्न हैं । श्रवयव और अवयवी में विरुद्ध धर्मपना एवं पूर्वोत्तर काल भाविपना होने से ये सर्वथा पृथक् माने जाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 762