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एकवीसमो संधि नहीं लगता, सातची अवस्थामें वह एक भी कौर नहीं खाता, आठवीं अवस्थामें जानेके उन्मादसे भर लठता, नर्वी अवस्थामें प्राणोंका सन्देह उत्पन्न हो जाता, दसवीं अवस्थामें किसी प्रकार उसका मरण नहीं चूकता । अनुचरोंने राजासे कहा"हे प्रभु ! तुम्हारे पुत्रका जीना कठिन हैं। किसी कन्याके कारण वह दसवी कामावस्थाको प्राप्त हुआ है ॥१-२॥
ii.j चन्द्रगतिन नाम, नर और अगराक कुलोंमें कलह करानेवाले नारद से पूछा- बताओ यह किसकी कन्या है
और इसे कहाँ देखा है कि जो मेरे पत्रके हृदयमें प्रविष्ट हो गयी है।" महामुनि नारद कहते हैं, "चन्द्रकेतु नामका मिथिलाका राजा है। उसका पुत्र जनक है, वहाँ मैंने त्रिलोकमें विशिष्ट यह कन्यारत्न देखा है ? यदि वह इसकी हो सके तो पुरन्दरराज ( जनक) से सीताका हरण कर लाओ।" यह सुनकर असनको पानेकी इच्छा रखनेवाले विद्याधर राजाने चपलवेग को भेजा कि जाओ विदेहके स्वामीको हर लाओ । मैं उससे विवाह-सम्बन्ध करूँगा।" वह चन्द्रगतिका मुंह देखकर गया। विद्याधर घोड़ा बनकर वहाँ पहुँचा | जैसे ही राजा जनक उस अश्वपर चढ़ा वैसे ही वह दक्षिण श्रेणीपर पहुँचा । मिथिला राजाको जिनमन्दिरमें छोड़कर चपलवेग सुन्दर नगर में प्रवेश करता है। हर्षपूर्वक उसने अपने स्वामीसे कहाकि जनकराजाको ले आया हूँ। वह भी विरहके परवश अपने पुत्रके साथ वंदनाभक्तिके लिए वहाँ गया । ॥१-११॥ - [११] विद्याधरों और मनुष्योंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले दोनों राजाओंने सम्भाषण किया। सन्तुष्ट मन चन्द्रगति कहता है कि "हम दोनों स्वजनत्व कर लें । तुम्हारी कन्या और हमारा पुत्र । मनोरथकारी विवाह हो जाये ।" इससे जनक्रका केवल क्रोध बढ़ा कि “मैंने विजयश्रीरूपी स्त्रीमें आसक्त, शवर