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है। ठीक ऐसे ही चेतना के सतत प्रवाह में अचानक तुम देख पाओगे कि तुम कौन हो, पहली बार तुम अपने आत्मरूप को देख पाओगे।
लेकिन ध्यान रहे, यह अंत नहीं है। बाह्य विषय और अंतर आत्मा, ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दिन और रात एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जीवन और मृत्यु दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वस्तुनिष्ठता बाह्य संसार है, आत्मनिष्ठता भीतरी, जब कि तुम न तो बाह्य हो और न भीतरी तुम दोनों ही नहीं हो। इसे समझना बहुत कठिन है, क्योंकि साधारणत: कहा जाता है, 'अपने भीतर जाओ।' जबकि वह भी एक अस्थायी अवस्था है। उसके भी पार जाना है, उसके भी बियांड जाना है।
बाह्य और भीतर-दोनों ही बाहर हैं। तुम वह हो, जो बाहर भी जा सकता है और जो भीतर भी जा सकता है। तुम वह हो, जो इन दोनों ध्रुवों के बीच में गतिमान हो सकते हो। तुम उन दोनों के पार हो। वही तीसरी अवस्था समाधि है।
जब मन विषय के साथ एक रूप हो जाता है तो वह समाधि है।
जब दृश्य विलिन हो जाता है द्राटा मैं, और द्रष्टा विलीन हो जाता है दृश्य में, जब न तो कोई देखने वाला बचता है, न कोई देखे जाने वाला, जब दवैत ही नहीं बचता, तब एक अदभुत शांति और मौन छा जाता है। तब यह नहीं बताया जा सकता कि क्या बचता है, क्योंकि यह कहने, बताने को कोई बचता ही नहीं। समाधि के बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता, क्योंकि समाधि के बारे में कुछ भी कहना न कहने जैसा ही होगा। क्योंकि उस बारे में जो भी कहा जाए वह या तो वैज्ञानिक होगा या काव्यात्मक होगा। धर्म के लिए कुछ कहा नहीं जा सकता, वह हमेशा अकथनीय और अनिर्वचनीय है।
तो दो तरह से धार्मिक अभिव्यक्ति हो सकती है। पतंजलि का प्रयास वैज्ञानिक परिभाषा के लिए है। क्योंकि धर्म के पास स्वयं कोई पारिभाषिक शब्दावली नहीं है।'समग्र' को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है। अभिव्यक्त करने के लिए उसे या तो विषय-व तु की भांति बताना पड़ेगा या फिर आत्मरूप की भांति। उसे विभक्त करना ही पड़ेगा। उसके बारे में कुछ भी कहना उसे विभाजित करना है। पतंजलि ने वैज्ञानिक शब्दावली का चुनाव किया है, बुद्ध ने भी वैज्ञानिक शब्दावली का उपयोग किया है। लाओत्स, जीसस ने अभिव्यक्ति के लिए काव्यात्मक ढंग चुना है। लेकिन दोनों हैं शब्दगत ही। यह व्यक्ति के मन पर निर्भर करता है। पतंजलि का ढंग वैज्ञानिक है; तर्क में, विश्लेषण में उनकी गहरी पैठ है। जीसस काव्यात्मक हैं, लाओत्सु कवि हैं। उनकी अभिव्यक्ति का ढंग काव्यात्मक है। लेकिन स्मरण रहे, दोनों ही ढंग अधरे हैं। इनके भी पार जाना है।
'जब मन विषय के साथ एकरूप हो जाता है तो वह समाधि है।'